शनिवार, सितम्बर 6, 2025 1:36 अपराह्न IST
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महापर्व छठ का खगोलीय महत्व

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KKN न्यूज ब्यूरो। लोक आस्था का महापर्व छठ कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। यह एक खगोलीय घटना है। इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें (Ultra Violet Rays) पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। सूर्य के पराबैगनी किरण के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा के लिए इस पर्व को मनाने की परंपरा रही है।

आयन मंडल

सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण चंद्रमा और पृथ्वी पर आती हैं। सूर्य का प्रकाश, जब पृथ्वी पर पहुंचता है, तो यहां इसको पहला वायुमंडल मिलता है। वायुमंडल में प्रवेश करने पर उसे आयन मंडल मिलता है। पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर उसे एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है। इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है।

पराबैगनी किरण

सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्य या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है। अत: सामान्य अवस्था में मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। अपितु, इससे वायुमंडल की हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं और इससे जीवन को लाभ होता है। किंतु, छठ के रोज खगोलीय कारणो से चंद्रमा और पृथ्वी पर सूर्य की पराबैगनी किरणो का कुछ अंश चंद्र की सतह से परावर्तित तथा कुछ अपवर्तित होती हुई पहुंचती है। कभी कभी यह पृथ्वी तक सामान्य से अधिक मात्रा में पहुंच जाती हैं। सूर्यास्त तथा सूर्योदय के वक्त यह और भी सघन हो जाती है।

साल में दो बार

ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन उपरान्त आती है। यह घटना वर्ष में दो बार होता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। लिहाजा छठ भी वर्ष में दो बार मनाया जाता है। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिक छठ कहा जाता है।

उषा और प्रत्यूषा

धर्मग्रंथो में सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना की जाती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं।

वैदिक काल

भारत में सूर्योपासना का यह महापर्व ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण और ब्रह्म वैवर्त पुराण में विस्तार से की मिलता है। मध्य काल में सूर्योपासना का यह पर्व लोक आस्था का रूप लेने लगा था। देवता के रूप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद् एवं आदि वैदिक ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रमुखता से की गई है। उत्तर वैदिक काल के अन्तिम कालखण्ड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी थी। यही आस्था, कालान्तर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। इसी कालखंड में अनेक स्थानों पर सूर्यदेव के मंदिर भी बनाये गये।

आरोग्य का देवता

पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता माना जाता था। कहतें हैं कि सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पायी जाती है। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसन्धान के क्रम में वर्ष में दो बार इसका विशेष प्रभाव बताया है। सम्भवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही होगी।

षष्ठी का अपभ्रंश है छठ

सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों मनाया जाता है। प्रायः हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते हैं। धीरे-धीरे यह त्योहार प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित हो चुका है। नहाय-खाय से आरंभ हो कर चार रोज तक चलने वाले इस महापर्व का समापन उषा अर्ध्य के साथ होता है। इस बीच दूसरे रोज छठब्रती के द्वारा खरना और तीसरे रोज संध्या अर्ध्य का उपासना होता है। छठ पर्व, षष्ठी का अपभ्रंश है। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है।

कर्ण का अर्घदान

कथाओं के मुताबिक भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गयी, जिसके लिए शाक्य द्वीप से जानकार ब्राह्मणों को बुलाया गया था। एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। एक अन्य मान्यता के अनुसार आधुनिक छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा शुरू की थी और अर्घदान किया था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की पद्धति प्रचलित है।

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