बाढ़ की समस्या का अध्ययन करना और बाढ़ को महसूस करना। दोनो दो अलग-अलग बातें है। अध्ययन करने के लिए बाढ़ग्रस्त इलाके में घंटा दो घंटा रह लेना काफी है। बाढ़ पीड़ितो से बात करके उनकी समस्या को शब्दो में उकेर देना काफी है। पर, महसूस तो सिर्फ वहीं कर सकता हैं, जिनकी दिनचर्या इसी बाढ़ के बीच में घिरी हो। जिनका आशियाना पानी के बीच टापू बन गया हो। जिनको, काली अंधेरी रात की खामोशी में मेढ़क की टर-टो की आबाज सुनाई पड़ती हो। झिंगूर की गुन-गुनाहट, कुत्ते के रोने की आबाज और बिषैले सांपो की फुफकार के बीच जिनके रात गुजरता हो। छोटी से छोटी जरुरतो की कमी हो जाए, तो चुल्हा बंद होने का खतरा। सिर छिपाने के लिए एक अदद छत के नहीं होने का खतरा और चापाकल के डूब जाने के बाद बाढ़ का पानी पीकर बीमार होने का खतरा। इस सब के बीच एक खतरा और… वह ये कि खतरो के सौदागर से स्नेह का खतरा। कहतें हैं कि बाढ़ की समस्या को वहीं महसूस कर सकता है, जिसने खुदसे इन तमाम समस्याओं को महसूस किया हो। अब सवाल उठता है कि आजादी के सात दशक बाद भी साल दर साल आने वाली बाढ़ की विभिषिका का आज तक कोई समाधान क्यों नहीं हुआ? क्या यह अंतहीन समस्या है या हमने इसके समाधान के लिए ठीक से पहल नहीं की? यह बड़ा सवाल बन चुका है। देखिए, इस रिपोर्ट में…
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