राजकुमार सहनी
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की भारत यात्र कितनी महत्वपूर्ण है, इसका पता इससे भी चला कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रोटोकॉल की अनदेखी कर हवाई अड्डे पर उनका स्वागत करने खुद गए। एक तरह से यह देश के लोगों को चौकाने वाला कदम साबित हुआ लोगों के तरफ से प्रधानमंत्री को खूब वाहवाही मिली। वे यातायात के नियमों का पालन करते दिखे और किसी भी मार्ग को तनिक भी प्रभावित नहीं होने दिया। शेख हसीना की इस यात्र के दौरान दोनों देशों के बीच कम से कम दो दर्जन समझौते होने की उम्मीद है।
ये समझौते दोनों देशों के बीच केवल आर्थिक-व्यापारिक सहयोग को ही गति नहीं देंगे, बल्कि एक-दूसरे के प्रति भरोसे को भी बढ़ाएंगे। बांग्लादेश के साथ प्रस्तावित असैन्य परमाणु सहयोग के साथ रक्षा सहयोग संबंधी समझौते भारतीय हितों की पूर्ति में खास तौर पर सहायक बनेंगे। स्वाभाविक तौर पर इसे रेखांकित नहीं किया जा रहा। लेकिन, यह स्पष्ट ही है कि ये समझौते बांग्लादेश में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने का भी काम करेंगे। चूंकि, चीन भारत की चिंताओं को दूर करने के बजाय उन्हें बढ़ाने का काम कर रहा है इसलिए दक्षिण एशिया में उसके अनावश्यक दखल के प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतना समय की मांग है। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि बांग्लादेश सरकार इस मांग को पूरा करने में सहायक बन रही है। चूंकि, शेख हसीना भारत की शुभचिंतक हैं इसलिए भारत सरकार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह बांग्लादेश की चिंताओं का समाधान करने के मामले में सक्रियता दिखाए। द्विपक्षीय रिश्ते ऐसे ही मजबूत होते हैं। दुर्भाग्य से इसमें संकीर्ण राजनीति आड़े आती दिख रही है।
बांग्लादेश के साथ तीस्ता नदी जल के बंटवारे को लेकर समझौता शायद इस बार भी न हो? क्योंकि, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस पर अड़ियल रवैया अपना रखा है। माना जा रहा है कि इसी अड़ियल रवैये के कारण शेख हसीना की भारत यात्र में देरी हुई। ममता बनर्जी इस नदी के जल बंटवारे संबंधी समझौते पर 2011 से ही नकारात्मक रवैया अपनाए हुए हैं। हालांकि ममता बनर्जी इससे अच्छी तरह अवगत हैं कि तीस्ता नदी पर समझौते में देरी बांग्लादेश में एक राजनीतिक मसला बनती जा रही है और इसके चलते शेख हसीना के समक्ष मुश्किलें खड़ी हो रही हैं। लेकिन इसके बावजूद वह अपने रुख पर अड़ी हैं।
ध्यान रहे कि सीमा संबंधी समझौते पर भी उन्होंने मुश्किल से हामी भरी थी। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं कि ममता बनर्जी संकीर्ण राजनीतिक कारणों से विदेश नीति में बाधक बनें। विदेश नीति के मामले में राज्य सरकारों की अपनी कोई राय तो हो सकती है। लेकिन, इसका कोई औचित्य नहीं कि वे उसे अपने हिसाब से नियंत्रित-निर्देशित करने की कोशिश करें। पश्चिम बंगाल सरकार ठीक यही कर रही है। ममता का यह नकारात्मक रवैया जहां विकास के मार्ग में बाधक बनता है रहा है। वही, इससे वेपरवाह होकर ममता अपने रुख पर कायम रहने की हर संभव कोशिश करती दिख रही है। जिससे देश का छवि दागदार हो ऐसे संकीर्ण कदम उठाने में वह तनिक भी नहीं हिचक रही है।
इसके पहले श्रीलंका के मामले में तमिलनाडु सरकार भी ऐसा कर चुकी है। ममता सरकार अपने रुख-रवैये से इसी धारणा को पुष्ट कर रही है कि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर संकुचित दृष्टिकोण अपनाते हैं। विडंबना यह है कि ममता बनर्जी तीस्ता नदी के साथ पद्मा नदी के जल बंटवारे संबंधी समझौते को लेकर भी आनाकानी करती दिखा रही हैं। यह असहयोग और अहंकार भरी राजनीति की पराकाष्ठा ही है कि वह बांग्लादेश और भारतीय प्रधानमंत्री की अगुवाई में होने वाली आधिकारिक वार्ता में शामिल होने से भी इन्कार कर रही हैं। अच्छा हो कि वह यह समझे कि किसी मुख्यमंत्री को ऐसा रवैया शोभा नहीं देता।