इंदिरा गांधी आपातकाल: भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय दौर

The Emergency of 1975: India’s Darkest Chapter in Democracy

KKN गुरुग्राम डेस्क | 25 जून 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काले दिन के रूप में दर्ज है। इस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की थी, जो 21 मार्च 1977 तक लागू रहा। इस दौरान भारत में प्रेस सेंसरशिप, बिना सुनवाई के गिरफ्तारियां, और लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन किया गया। आपातकाल के दौरान सरकार ने अपने विरोधियों को दमन के रास्ते पर डालते हुए लोकतंत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया। इस लेख में हम आपको आपातकाल के दौरान हुई घटनाओं और उनके असर के बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं।

आपातकाल की घोषणा के कारण

1975 में इंदिरा गांधी की सरकार विभिन्न समस्याओं से जूझ रही थी। समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ आंदोलन तेज हो रहा था। लोग सड़कों पर उतरकर इन समस्याओं के खिलाफ विरोध कर रहे थे। इसी बीच, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को रद्द कर दिया था, जिससे उनकी सरकार संकट में आ गई थी। इस फैसले ने उनकी कुर्सी को खतरे में डाल दिया और उन्हें अपनी सत्ता को बचाने के लिए आपातकाल लागू करने का रास्ता अपनाना पड़ा।

आपातकाल की घोषणा: 25 जून 1975

इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की रात को संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की। यह कदम बिना कैबिनेट की मंजूरी के रातोंरात लिया गया था। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने मध्यरात्रि में इस पर हस्ताक्षर किए और इसके बाद पूरा देश आपातकाल के अंधेरे में डूब गया। इस फैसले ने भारतीय लोकतंत्र को एक गंभीर झटका दिया था, क्योंकि इससे नागरिक स्वतंत्रताएं और मौलिक अधिकार निलंबित हो गए थे।

आपातकाल का प्रभाव: प्रेस सेंसरशिप और गिरफ्तारियां

आपातकाल के दौरान प्रेस सेंसरशिप लागू की गई थी। मीडिया को सरकार के आदेश के बिना कुछ भी प्रकाशित करने की अनुमति नहीं थी। अखबारों को सरकारी सेंसर से पहले हर खबर की अनुमति लेनी पड़ती थी। इस दौरान कई पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया और कुछ समाचार पत्रों के दफ्तरों पर ताले जड़ दिए गए। एक मशहूर कहानी है कि कुछ अखबारों ने सेंसरशिप के खिलाफ अपने संपादकीय पन्ने खाली छोड़ दिए।

इसी तरह, विपक्षी नेताओं जैसे जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, और जॉर्ज फर्नांडीस को बिना किसी प्रक्रिया के रातोंरात जेल में डाला गया। जेलें इतनी भर गईं कि जगह तक कम पड़ने लगी। इस दौरान न केवल राजनीतिक विरोधियों बल्कि पत्रकारों, लेखकों, और कलाकारों को भी दमन का शिकार बनाया गया।

आपातकाल के खिलाफ जनाक्रोश

आपातकाल केवल अपराधियों के खिलाफ नहीं था, बल्कि यह हर उस आवाज़ के खिलाफ था जो सत्ता से सवाल पूछती थी। इंदिरा गांधी के इस तानाशाही रवैये के खिलाफ जनता ने सड़कों पर उतरकर लोकतंत्र की बहाली के लिए आवाज़ उठाई। गली-गली, नुक्कड़-नुक्कड़ पर लोकतंत्र को बचाने के नारे लगाए गए। कई नागरिकों ने अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया और इसके परिणामस्वरूप लोकतंत्र के प्रति एक नया विश्वास जागृत हुआ।

आपातकाल का अंत: 21 मार्च 1977

आपातकाल का अंत 21 मार्च 1977 को हुआ, जब इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव की घोषणा की। उन्हें भरोसा था कि जनता उनके साथ है और चुनाव में उन्हें समर्थन मिलेगा। लेकिन, चुनाव परिणाम ने उन्हें चौंका दिया। 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी ने विजय प्राप्त की और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में नई सरकार बनी।

यह चुनाव उन लाखों नागरिकों की विजय थी जिन्होंने जेलों में यातनाएं झेली, सड़कों पर प्रदर्शन किए और लोकतंत्र की वापसी के लिए संघर्ष किया। जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद, इंदिरा गांधी की सत्ता का अंत हुआ और लोकतंत्र की बहाली हुई।

आपातकाल का प्रभाव और भारतीय राजनीति में बदलाव

आपातकाल ने भारतीय राजनीति में गहरा प्रभाव छोड़ा। यह केवल एक राजनीतिक संकट नहीं था, बल्कि यह भारतीय समाज और लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए एक सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौती थी। आपातकाल के दौरान हुए दमन ने भारत के लोकतंत्र को एक नया रूप दिया। जनता पार्टी की विजय के साथ, भारतीय राजनीति में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व समाप्त हुआ और विपक्षी राजनीति को मजबूती मिली।

इस दौर ने भारतीय जनता को यह सिखाया कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना जरूरी है। प्रेस स्वतंत्रता, सार्वजनिक असंतोष और विपक्षी आवाजें लोकतंत्र के अभिन्न अंग हैं। आपातकाल ने भारतीय समाज को यह याद दिलाया कि संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सुरक्षा के लिए नागरिकों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है।

आपातकाल से सिखे गए पाठ

आपातकाल ने यह स्पष्ट कर दिया कि लोकतंत्र के प्रत्येक पहलू को संरक्षित करना आवश्यक है। विपक्षी विचार और स्वतंत्र प्रेस का होना लोकतांत्रिक समाज के लिए एक बुनियादी आवश्यकता है। आपातकाल ने यह सिखाया कि सरकार का दमनकारी कदम नागरिक स्वतंत्रताओं को नष्ट कर सकता है और राजनीतिक असहमति को कुचल सकता है।

आज भी, आपातकाल भारतीय राजनीति में एक स्मारक के रूप में उभरा है, जो भविष्य की पीढ़ियों को यह याद दिलाता है कि लोकतांत्रिक संविधान और मौलिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए।

इंदिरा गांधी आपातकाल भारतीय राजनीति के एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गहरे प्रभाव वाले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा। यह समय भारतीय लोकतंत्र के लिए कठिन था, लेकिन इसके बाद हुई जनता की जीत ने यह साबित कर दिया कि लोकतंत्र की शक्ति और जनता की आवाज से कोई भी तानाशाही नहीं टिक सकती। आपातकाल ने भारतीय राजनीति को सशक्त बनाया और देश के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों की अहमियत सिखाई।

आज के समय में, आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का एक अहम पाठ बन चुका है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए हमें हमेशा प्रेरित करता है।

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