KKN न्यूज ब्यूरो। भारत और नेपाल के परंपरागत संबंधो में इन दिनो कुछ तल्खी आ गई है। नेपाल इसकी वजह सीमा विवाद बता रहा है। बतादें कि नेपाल और भारत के बीच करीब 1850 किलोमीटर से अधिक लंबी और खुली सीमा है। एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए पासपोर्ट की जरुरत नहीं है। सदियो से दोनो देश के बीच बेटी और रोटी का संबंध रहा है। कभी सीमा को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया?
नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी शर्मा ओली के बयान के बाद भारत और नेपाल के बीच चली आ रही सदियों पुराने संबंधो लेकर समीक्षा शुरू हो गई है। यह कुछ हद तक स्वभाविक भी है। सवाल उठता है कि नेपाल के प्रधानमंत्री ने ऐसा बयान क्यों दिया? इसको समझने के लिए भारत और नेपाल के बीच चली आ रही सदियों पुराने संबंधो को समझना होगा। विवाद के कारणो को समझना होगा और चीन की चाल को भी समझना होगा। दरअसल, लिपुलेख को लेकर सुगोली समझौते का अध्ययन करने से हकीकत का पता चल जाता है। इसके लिए आजादी के बाद वर्ष 1950 में समझौते की पुर्न समीक्षा से जुड़ी दस्ताबेजो का भी अध्ययन करना जरुरी हो जाता है। इसके बाद एक- एक सिरा की बारीक से पड़ताल करने के बाद ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कड़ी अपने आप जुड़ जाता है।
भारत की सरकार ने पिछले कई वर्षो से लिपुलेख- धारचुला राजमार्ग का निर्माण कर रहा था। यह सामरिक महत्व की करीब 90 किलोमीटर लंबी सड़क है। नेपाल ने पहले कभी इसका विरोध नहीं किया। अब जब यह मार्ग बन कर तैयार हो चुका है और भारत की सरकार ने इसका उद्घाटन भी कर दिया है। अचानक नेपाल का सुर बदल गया। नेपाल ने इस इलाके पर अपना दावा ठोक कर सदियों पुरानी रिश्तो में असहजता घोल दी है। नेपाल के विदेश मंत्रालय ने यह दावा किया कि महाकाली नदी के पूरब का क्षेत्र नेपाल की सीमा में आता है। इसके बाद नेपाल की सरकार ने एक आधिकारिक मानचित्र जारी करके विवाद को और पुख्ता कर दिया है। इस नए नक्शे में उत्तराखंड के कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को नेपाल में बताया जाना चौका देता है। हद तो तब हो गई जब नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी शर्मा ओली ने नेपाल में कोरोना वायरस के प्रसार का ठिकरा भारत के उपर मढ़ दिया।
नेपाल ने अचानक अपना सुर क्यों बदला? क्या भारत और नेपाल के बीच सदियों पुराने रिश्ते पर चीनी की चाल भारी पड़ रही है या फिर यह मान लिया जाए कि हालिया वर्षो में नेपाल ज़रूरत से ज्यादा महत्त्वाकांक्षी हो गया है? इसका जवाब तलाशने से पहले चीन की कूटनीति को समझना होगा। दरअसल, पिछले कुछ वर्षो में नेपाल की अन्दरुनी मामलो में चीन की दखल काफी बढ़ चुका है। चीन की नीति हमेशा से विस्तारवाद की रही है। चीन की कम्युनिस्ट सरकार की गिद्ध नजर हमेशा से नेपाल पर रही है। किंतु, भारत के साथ नेपाल का गहरा समाजिक और आर्थिक संबंध के रहते यह सम्भव नहीं हो रहा था। नतीजा, चीन ने कूटनीति के तहत नेपाल को झांसे में लेकर भारत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। ताकि, भारत और नेपाल के मधुर संबंधो के बीच एक गहरी खाई बन जाये और कालांतर में तिब्बत की तरह नेपाल पर भी चीन का अधिपत्य कायम हो सके। वैसे भी चीन का मानना है कि नेपाल तिब्बत का हिस्सा है और चूंकि तिब्बत चीन के अधीन हो चुका है। लिहाजा, नेपाल पर चीन अपना स्वभाविक अधिकार मानता है। चीन ने इसके लिए नेपाल में वन बेल्ट वन रोड परियोजना सहित कई बिन्दुओं पर काम शुरू कर दिया है। इसका असर अब दिखने भी लगा है।
भारत और नेपाल के मध्य हालिया विवाद का कारण बना है एक सड़क। दरअसल, यह सड़क उत्तराखंड के धारचुला को लिपुलेख दर्रे से जोड़ती है। नेपाल का दावा है कि कालापानी के पास पड़ने वाला यह क्षेत्र नेपाल का हिस्सा है और भारत ने नेपाल से वार्ता किये बिना इस क्षेत्र में सड़क निर्माण का कार्य पूरा कर लिया है। सवाल उठता है कि जिस वक्त सड़क निर्माण का कार्य आरंभ हुआ था, नेपाल ने उसी वक्त आपत्ति दर्ज क्यों नहीं कराई? खैर, कारण चाहे जो हो। पर, नेपाल की सरकार इस बात से नाराज होकर एक विवादित नक्शा जारी कर दिया है। ताज्जुब की बात है ये कि इस नक्शा में उत्तराखंड के कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को नेपाल का हिस्सा बताया गया है। इस विवाद को ठीक से समझने के लिए ऐतिहासिक दस्ताबेजो का अध्ययन करना यहां जरुरी हो गया। नेपाल की सरकार ने जिस सुगौली संधि के हवाले से यह नक्शा जारी किया है। अब उस पर भी एक नजर डाल लेंते है।
भारत और नेपाल के बीच विवाद की जड़ 1816 में शुरू हुई थी। उस वक्त भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था। उस वक्त ब्रिटिश सरकार ने नेपाल में राजाओं के शासन को कड़ी चुनौती दी और हमला कर दिया। युद्ध के मैदान में नेपाल की सेना अंग्रेजो के सामने टीक नहीं सकी और नेपाल के राजा ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने घुटने टेक दिए। इसके बाद 4 मार्च 1816 को ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच सुगौली में संधि हुआ था। नेपाल की ओर से इस पर राजगुरु गजराज मिश्र और कंपनी ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किये थे। अंग्रेजो की कई शर्तो को मानते हुए नेपाल के राजा ने ब्रिटिश हुकूमत के साथ संधि कर लिया। नेपाल ने उस वक्त अंग्रेजो के सामने झुकना कबूल कर लिया था। इससे खुश होकर ब्रिटिश हुकूमत ने नेपाल के राजा को ईनाम के तौर पर नेपाल को तराई क्षेत्र का भूभाग जिसमें मिथिला शामिल है, उसे नेपाल के हवाले कर दिया। यह पूरा इलाका आज भी नेपाल के कब्जे में है। इसी समझौते में महाकाली नदी को नेपाल का पश्चिमी सीमा बताया गया है। सुगौली का यह इलाका भारत के बिहार प्रांत के बेतिया में स्थित है। भारत की आजादी के बाद वर्ष 1950 में इस संधि की समीक्षा हुई और इसे स्वीकार कर लिया गया। इस संधि के मुताबिक महाकाली नदी को नेपाल का पश्चिमी सीमा बताया गया है और यही विवाद का कारण बना गया है। क्योंकि, कालांतर में महाकाली नदी तीन धाराओं में विभक्त हो गई और उसका एक हिस्सा भारत की सरजमी से होकर बहने लगा। इसी को आधार बना कर नेपाल ने लिम्पियाधूरा, कालापानी और लिपुलेख पर अपना दावा ठोक दिया है। बतातें चलें कि इससे पहले जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केन्द्र शासित प्रदेश बनाये जाने के बाद वर्ष 2019 के नवम्बर में भारत सरकार ने एक नक्शा जारी किया था। इसमें स्पष्ट रूप से लिम्पियाधूरा, कालापानी और लिपुलेख को भारत का हिस्सा बताया गया है। इस वक्त विवाद का कारण सिर्फ लिम्पियाधूर, कालापानी और लिपुलेख नहीं है। बल्कि, इस वक्त भारत और नेपाल के बीच सीमा पर करीब 54 स्थानों पर अतिक्रमण और विवाद के मामले शुरू हो गये हैं।
बात सीमा विवाद की नहीं है। बल्कि, विवाद की असली वजह तो चीन की चालबाजी है। दरअसल, चीन बड़ी चालाकी से भारत नेपाल के सदियों पुराने संबंध को कमजोर करना चाहता है। भारत नेपाल के संबंधो की बात करें तो नेपाल, भारत का एक महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश है। भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक संबंधों के कारण भारत के विदेश नीति में नेपाल का सदियों से विशेष महत्त्व रहा है। भारत और नेपाल दोनो धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से बेहद करीब है। भगवान बुद्ध का जन्मस्थान लुम्बिनी है, जो नेपाल में है और उनका निर्वाण स्थान कुशीनगर है, जो भारत में है। इसी प्रकार जगत जननी माता सीता का बचपन नेपाल के जनकपुर में बीता था और अयोध्या पति पुरुषोत्म श्रीराम से उनका विवाह हुआ था। नतीजा, दोनो देश अपनी साझा सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने के लिए रामायण सर्किट की योजना पर काम भी कर रहें हैं। हाल ही में भारत के रक्सौल को नेपाल के काठमांडू से जोड़ने के लिये इलेक्ट्रिक रेल ट्रैक बिछाने हेतु दोनों सरकारों के बीच समझौता हुआ है। राजनीति की बात करे तो भारत और नेपाल के बीच महत्वपूर्ण द्विपक्षीय संधि है। इसका उद्देश्य दोनों दक्षिण एशियाई और पड़ोसी देशों के बीच घनिष्ठ रणनीतिक संबंध स्थापित करना रहा है। दोनों देशों के बीच लोग और वस्तुओं की मुक्त आवाजाही और रक्षा एवं विदेशी मामलों के बीच घनिष्ठ संबंध तथा सहयोग की बाते कही गई है। इस संधि के अनुसार नेपाल को भारत से हथियार खरीदने की सुविधा है। इसके अतिरिक्त नेपाल को भारत में कई प्रकार की विशेषाधिकार प्राप्त है। भारत और नेपाल की खुली सीमा दोनों देशों के संबंधों की विशिष्टता मानी जाती है। दोनों देशों के बीच करीब 1850 किलोमीटर से अधिक लंबी साझा सीमा है। यह भारत के पांच राज्य सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से सटी हुई हैं। भारत और नेपाल के बीच सीमा को लेकर कभी कोई बड़ा विवाद नहीं हुआ है। लगभग 98 फीसदी सीमा की पहचान स्पष्ट है। उसके नक्शे पर दोनो देशो की साझा सहमति है।
नेपाल, भारत का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार होने के साथ-साथ विदेशी निवेश का स्रोत भी है। नेपाल को अन्य देशों के साथ व्यापार करने के लिये भारत से पारगमन की सुविधा दी जाती है। इसके अतिरिक्त नेपाल अपने समुद्री व्यापार के लिये कोलकाता बंदरगाह का उपयोग करता है। नेपाल में बिजली की आपूर्ति, पर्यटन और सेवा सेक्टर में भारत की ओर से हर सम्भव मदद दी जाती है। इसी प्रकार स्वास्थ्य, जल संसाधन, शिक्षा, ग्रामीण विकास और सामुदायिक विकास जैसे संवेदनशील जरुरतो की भारत हमेशा से पूर्ति करता रहा है। रक्षा के क्षेत्र में भारत के द्वारा नेपाली सेना को उपकरण और प्रशिक्षण देकर उसको सशक्त बनाने और सेना का आधुनिकीकरण करने में भारत हमेशा नेपाल की मदद करता रहा है। भारत अपने खुद की सेना में नेपाली गोरखा को शामिल किया हुआ है। इसके लिए भारत के सेना में अलग से गोरखा रेजिमेंट बना कर रखा हुआ है। वर्ष 2011 से भारत और नेपाल के साथ एक संधि हुआ। इस संधि के तहत प्रति वर्ष संयुक्त सैन्य अभ्यास शुरू कर दिया गया है। ‘सूर्य किरण’ नाम से होने वाले इस सैनिक अभ्यास का मकसद नेपाली सेना को आधुनिक युद्ध कला में निपुन बनाना है।
आपदा के समय भी भारत सदैव से नेपाल के साथ खड़ा रहा है। नेपाल में अक्सर भूकंप, भू-स्खलन या हिमस्खलन, बादल फटने और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा रहता है। क्योंकि, नेपाल एक प्राकृतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में स्थित है। ऐसे में भारत सदैव से आपदा से निपटने में नेपाल के साथ खड़ा रहा है। भारत के द्वारा कर्मियों की सहायता के साथ-साथ तकनीकी और मानवीय सहायता भी दिया जाता रहा है। संचार के क्षेत्र में भारत ने नेपाल में कनेक्टिविटी कार्यक्रम शुरू किया है। ताकि, नेपाली नागरिको के मध्य बेहतर संपर्क स्थापित हो सके। यानी पड़ोसी धर्म का पालन करने में भारत ने कभी कोई कोताही नहीं की। सवाल उठता है कि पड़ोसी धर्म का पालन करने के बाद भी भारत और नेपाल के संबंधो में तल्खी क्यों आई?
दरअसल, वर्ष 2015 से दोनों देशों के संबंधों में कड़वाहट की शुरूआत होती है। तब नेपाली संविधान अस्तित्व में आया था। भारत के द्वारा नेपाली संविधान का उस रूप में स्वागत नहीं किया गया, जिस रूप में नेपाल को उम्मीद थी। इसके बाद वर्ष 2015 के नवंबर महीने में भारत ने अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार मंच पर इस मुद्दा को उठाया। उस वक्त नेपाल में राजनीतिक फेर-बदल का दौर चल रहा था और नेपाल ने इसको आंतरिक मामलो में हस्तक्षेप मान लिया। बात यहीं खत्म नहीं हुआ। वर्ष 2015 में ही नेपाल में मधेसी आंदोलन शुरू हो गया। लाखो मधेसी अपनी नागरिकता के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। नेपाल में एक धारना बनी कि भारत मधेसियों के साथ है और नेपाल की आर्थिक घेराबंदी करना चाहता है। हालांकि, यह सोच सही नहीं था। फिर भी यहीं से भारत और नेपाल के रिश्ते बिगड़ने शुरू हो गये। इस बीच चीन ने वन बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना में नेपाल को शामिल कर लिया। भारत के मना करने के बाद भी नेपाल चीन की सह पर इस परियोजना का हिस्सा बन गया। नतीजा, चीन का दखल नेपाल में बढ़ने लगा। चीन की मदद से नेपाल के कई स्कूलों में चीनी भाषा यानी मंदारिन की पढ़ाई शुरू कर दी गई। नेपाल में मंदारिन भाषा को पढ़ाने वाले शिक्षकों को अधिक वेतन दिया जाता है और इसका पूरा खर्च चीन की सरकार देती है। कहतें है कि किसी देश पर कब्जा करने के लिए उसकी भाषा पर कब्जा करना, जरुरी होता है और चीन इस काम को नेपाल में बखुबी शुरू कर चुका है।
अब एक बार लिपुलेख के सामरिक महत्व को समझ लेंते है। दारअसल, लिपुलेख का दर्रा 5 हजार 200 मीटर की उंचाई पर स्थित है। यह भारत के उत्तराखंड राज्य और चीन के तिब्बत के बीच की सीमा पर स्थित एक हिमालयी दर्रा है। नेपाल इसके दक्षिणी हिस्से में है। जिसको कालापानी कहा जाता है। वर्ष 1962 से ही इस इलाके पर भारत का नियंत्रण रहा है। दरअसल, उत्तराखंड के सीमांत जनपद यानी पिथौरागढ़ की सीमाएं नेपाल और चीन की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से मिलती हैं। भारत ने नेपाल की सीमा पर एसएसबी और चीन की सीमा पर आईटीबीपी को तैनात किया हुआ है। वर्तमान में यह दर्रा भारत से कैलाश पर्वत व मानसरोवर जाने वाले यात्रियों द्वारा विशेष रूप से इस्तेमाल होता है। लिपुलेख दर्रे को लीपू पास या लिपूला दर्रा भी कहा जाता है। यह क्षेत्र भारत के उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र को तिब्बत के तकलाकोट या पुरंग शहर को जोड़ता है। सडक बनने से पहले लोग धारचूला से करीब 90 किलोमीटर का सफर पैदल ही तय करके लिपुलेख तक पहुंचते थे। आईटीबीपी और भारतीय सेना के जवानों को भी लिपुलेख तक पहुंचने में दो से तीन रोज का समय लगता था। लेकिन अब सड़क बनने से कुछ ही घंटों में धारचूला से लिपुलेख तक पहुंचा जा सकता है। दरअसल, इस सड़क के बनने से भारतीय सैनिकों की पहुंच चीन की सीमा तक हो गई है और यहीं बात चीन को चूभने लगा है।
पिछले वर्ष भारत में अनौपचारिक शिखर वार्त्ता के बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग नेपाल गये थे। पिछले 23 वर्षों में नेपाल की यात्रा करने वाले वे पहले चीनी राष्ट्रपति हैं। इससे पहले वर्ष 1996 में जियांग ज़मिन ने नेपाल का दौरा किया था। राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस यात्रा के दौरान नेपाल के साथ 20 समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए और नेपाल के विकास के लिये 56 अरब नेपाली रुपए की सहायता देने की घोषणा करके शी जिनपिंग ने अपना मंशा उसी वक्त जाहिर कर दिया था। इसके अतिरिक्त चीनी राष्ट्रपति ने काठमांडू को तातोपानी ट्रांजिट पॉइंट से जोड़ने वाली अर्निको राजमार्ग को दुरुस्त करने का भी वादा किया था। जानकार मानते है कि यही से भारत के प्रति नेपाल के रुख में बदलाव आना शुरू हो गया था। और आज इसकी परिणति साफ साफ दिखाई दे रही है। हालांकि, चीन ने अभी से अपनी चालबाजी शुरू कर दी है। नेपाल के रूई के इलाके पर चीन ने कब्जा कर लिया है और हिमालय पर्वत श्रृंखंला पर गिद्ध नजर रखे हुए है। यानी समय रहते नेपाल ने चीन की चालबाजी को नही समझा तो चीन उसका भी वहीं हाल करेगा, जो तिब्बत का किया था।
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