एक समय था, जब भारतीय संविधान के शिल्पकार, भारतरत्न, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारत में जातिवाद को खत्म करने में खुद को खपा दिया। बाबा साहेब ने अपने शोधपत्र में जातिवाद को अखंड भारत की राह में सबसे बड़ा बाधक बताया था। ताज्जुब की बात ये है कि उन्हीं के अनुयायियों ने आज भारत की राजनीति में जातिवाद को अनिवार्य शर्त बना दिया है। विकास की चाहे जितनी बात कर लीजिए, जीत के लिए अंत में जाति की धूरी पर सभी को चकरघिन्नी बनना पड़ता है। अब आप यूपी चुनाव को ही देख लीजिए।
एक नजर यूपी चुनाव पर
एक नजर यूपी चुनाव को देख लेते हैं। यहाँ राजनीति एक्सप्रेस-वे से शुरू होकर, विकास की कई कॉरिडोर से गुजरता हुआ इन्टरनेशल एअरपोर्ट होते हुए जाति की खाई भरे समीकरण में हिचकोले भरने लगा है। चाहे किसानों की कर्ज माफी हो या गन्ना का बकाया भुगतान, मानो कल की बातें हो गई हो। महंगाई का मुद्दा… बेरोजगारी और किसान आंदोलन से उपजा आक्रोश पीछे छूटने लगा है। यूपी चुनाव की तारीख करीब आते ही लोग पूछने लगे कि जाठ किधर जायेगा? राजभर का क्या होगा? कुर्मी और निषाद वोटर एकजुट रहेंगे या नही? मुसलमान, दलित और ब्राह्मण जैसे शब्द अचानक सुर्खियों में आ गये हैं। ऐसा क्यों हुआ? यह सवाल आज यूपी चुनाव की राजनीति में मौजू बन गया है, खास करके हिन्दी पट्टी में।
यूपी के हिन्दी पट्टी की राजनीति में जातिवाद
KKN न्यूज ब्यूरो। हिन्दी पट्टी की राजनीति में अक्सर विकास पीछे छूट जाता है। लिहाजा, जातीय समीकरण की चौसर पर क्षेत्रीय दलो की दमदार वजूद को नजरअंदाज करना मुश्किल है। यूपी चुनाव भी इससे अछूता नहीं है। जानकार मानते है कि वर्ष 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में ओबीसी यानी पिछड़़े वर्ग के मतदाता राजनीति की धूरी बन चुके है। सभी राजनीतिक दल इसी ओबीसी को साधने की जुगत में लगे हैं। यूपी में पिछड़े वर्ग के मतदाताओं की संख्या करीब 52 फीसदी है। जिस पर सभी की नजर है। वर्ष 1990 के बाद इस जाति का दबदबा यूपी चुनाव की राजनीति में काफी बढ़ा है। खासतौर से यादव जाति का। यह समाज ओबीसी का नेतृत्व करता है। इनकी भागीदारी करीब 11 फीसदी है। मंडल कमीशन के बाद मुलायम सिंह यादव को इसका भरपूर लाभ मिला और वे ओबीसी के राजनीति की धूरी बन गए। हालांकि इससे पहले वर्ष 1977 में जनता पार्टी के रामनरेश यादव यूपी के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। किंतु, ओबीसी नेता के तौर पर वह अपनी पहचान स्थापित नहीं कर सके।
यूपी चुनाव मे कौन करता है ओबीसी का नेतृत्व
मुलायम सिंह यादव ने खुद के दम पर अपनी पहचान बनाई है। वे वर्ष 1989, 1993 और 2003 में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इसके बाद वर्ष 2012 में उन्हीं के पुत्र अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने जो आज ओबीसी के नेतृत्व का दावा करते है। हालांकि, वर्ष 2014 के यूपी चुनाव के बाद बीजेपी ने आंबीसी में अपनी पैठ को मजबूत कर लिया है। लिहाजा, यूपी चुनाव की राजनीति में ओबीसी धूरी बन गई है। हम बता चुके हैं कि ओबीसी खेमे में यादव समाज सबसे सशक्त रहा है। जनाधार के ग्राफ पर नजर डालें तो वर्ष 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 72 फ़ीसदी यादवो का समर्थन मिला था। वहीं 2012 के यूपी चुनाव में यह घटके 63 फीसदी रह गया। जबकि, 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में 66 फीसदी यादव, सपा के साथ जुड़े रहे। बात लोकसभा की करे तो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में केवल 53 फ़ीसदी यादवो ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था। जबकि, 27 फ़ीसदी यादवों का वोट भाजपा में शिफ्ट हो गया था। यह वो दौड़ था, जब ओबीसी मतदाता यादव और गैर यादवो के बीच बंटने लगा था। बीजेपी को इसका भरपूर लाभ मिला।
उत्तरप्रदेश में यादव और गैर यादव में बंट सकता है ओबीसी
ओबीसी की सभी छोटी-बड़ी जातियों को मिला दें, तो ओबीसी के जातियों की कुल संख्या करीब 80 हो जाती है। हम आपको बता चुकें हैं कि वर्ष 2014 के बाद उत्तरप्रदेश की राजनीति में ओबीसी समाज यादव और गैर यादवो में बंट गया है। फिलवक्त अखिलेश यादव इसको पाटने में लगें है। क्योंकि, यूपी में गैर यादव ओबीसी करीब 41 फ़ीसदी हैं। पिछड़ा वर्ग में यादव के बाद सबसे ज्यादा कुर्मी मतदाताओं की संख्या है। इस जाति के मतदाताओं की भागीदारी करीब 6 फीसदी है। जबकि, पूर्वांचल के करीब एक दर्जन से अधिक जनपदों में इनकी हिस्सेदारी करीब 12 फ़ीसदी हैं। इसी प्रकार मौर्य यानी कुशवाहा जाति की संख्या उत्तरप्रदेश के 13 जिलों में सबसे ज्यादा है। स्वामी प्रसाद मौर्य और केशव प्रसाद मौर्य इसी जाति से ताल्लुक रखते है। फिलहाल दोनो आमने- सामने है। नतीजा क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है। फिलहाल, इतना तय है कि यूपी चुनाव मे ओबीसी को गोलबंद करना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा।
लोध, निषाद और राजभर पर टिकी है नजरें
उत्तरप्रदेश के दो दर्जन से अधिक जनपदों में लोध जाति के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह इस जाति के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे। अब वो नहीं रहे। हालांकि, लोध समाज का झुकाव बीजेपी की ओर बताया जा रहा है। हालांकि, सपा इसको साधने की जुगत में है। इसी प्रकार गंगा किनारे बसे एक दर्जन से अधिक जनपदों में निषादो की आबादी 6 से 10 फीसदी है। यह समाज यूपी चुनाव के परिणाम को बदलने का माद्दा रखता है। इस जाति के बड़े नेता डॉ. संजय निषाद फिलहाल भाजपा के साथ है। किंतु, भीआईपी के मुकेश सहनी यहां भी उलट-फेर की तैयारी में जुट गए है। उत्तरप्रदेश में राजभर बिरादरी की आबादी करीब 2 फ़ीसदी है। इनका सर्वाधिक असर पूर्वांचल में है। पूर्वांचल की आधा दर्जन से अधिक जनपदों में राजभर वोटर किसी का भी खेल बिगाड़ देने का माद्दा रखता है। फिलहाल, इसके सबसे बड़े नेता ओम प्रकाश राजभर और अनिल राजभर है। ओम प्रकाश राजभर ने सपा से हाथ मिला लिया है। इसका बीजेपी को कितना नुकसान होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
यूपी चुनाव मे निर्णायक भूमिका मे हैं मुसलमान
यूपी की राजनीति में मुसलमान निर्णायक भूमिका में है। जनसंख्या के लिहाज से मुसलमानो की आबादी लगभग 20 फ़ीसदी है। वर्ष 1990 से पहले मुसलमानो का एक मुश्त वोट कांग्रेस को मिलता रहा है। लेकिन 1990 के बाद बदले हालात में मुसलमान का झुकाव सपा की ओर तेजी से हुआ। बसपा के साथ भी मुसलमान जुड़ते रहें हैं। हालांकि, वर्तमान में मुसलमान मतदाताओं का रुझान एक बार फिर से सपा की ओर देखा जा सकता है। क्योंकि, मुसलमानो को ऐसा लगने लगा है कि सपा ही बीजेपी को हरा सकती है। इस बीच कई ऐसे विधानसभा सीट भी है, जहां मुसलमान बसपा के साथ मजबूती के साथ खड़ा हैं। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि असदउद्दीन ओबैसी की पार्टी ए.आई.एम.आई.एम का क्या होगा? क्या मुसलमान उनके साथ जायेंगे? इसमें कोई दोराय नहीं है कि यूपी की पूरी राजनीति इन्हीं सवालो के घेरे में है। फिलहाल, इतना तो तय है कि यूपी चुनाव में बीजेपी को मात देने के लिए मुसलमान एकजुट होने की पूरी कोशिश करेंगे।
यूपी चुनाव में दलित बना साइलेंट वोटर
यूपी की राजनीति में दलित मतदाता बहुत मायने रखते है। फिलहाल, यह साइलेंट है। आजादी के बाद दलित जाति के मतदाताओं पर सबसे ज्यादा कांग्रेस पार्टी की पकड़ हुआ करती थी। लेकिन बहुजन समाज पार्टी के गठन के बाद मान्यवर कांशी राम इस जाति के सबसे बड़े मसीहा बनकर उभरे। इससे पहले जगजीवन राम इस जाति के सर्वमान्य नेता हुआ करते थे। दलित की बात करें तो यह पूरा समाज जाटव और गैर जाटव में बंटा हुआ है। दलितो में जाटव जाति की जनसंख्या सबसे ज्यादा है। यह दलित वोट बैंक का करीब 54 फीसदी है। यहां आपको बतातें चलें कि दलित समुदाय के मतदाता करीब 70 उप जातियों में बंटा हुआ है। दलितों में करीब 16 फ़ीसदी पासी और 15 फ़ीसदी बाल्मीकि समाज का हिस्सा है। वर्तमान में इसके कई नेता है। किंतु, बहुजन समाज पार्टी कि बहन मायावती का नाम सबसे बड़ा है। दलित वोट बैंक के सहारे सुश्री मायावती पहली बार 1995 में उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं। इसके बाद वर्ष 2002 और 2007 में भी वो मुख्यमंत्री बनी। वर्तमान में बसपा के कमजोर होने से दलित वोट बैंक में बिखराव देखा जा सकता है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 24 फ़ीसदी दलितों का वोट मिला था। जबकि, दलितो की पार्टी के रूप में पहचान रखने वाली बसपा को दलितो का मात्र 13.9 फ़ीसदी वोट लेकर संतोष करना पड़ा था।
जाटव और गैर जाटव में बंटा है दलित समाज
जानकार मानते है कि उत्तरप्रदेश मे दलित समाज जाटव और गैर जाटव में बंटा हुआ है। गैर जाटव वोट बैंक पर बीजेपी की पकड़ मजबूत हुई है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में दलित वोट बैंक में से गैर जाटव का करीब 61 फ़ीसदी वोट बीजेपी को मिला था। जबकि, करीब 11 फीसदी जाटव ने भाजपा को वोट किया था। उन दिनो बसपा को 68 फ़ीसदी जाटव और 11 फ़ीसदी गैर जाटव दलित का समर्थन मिला था। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बीजेपी को करीब 60 फ़ीसदी गैर जाटव और करीब 21 फ़ीसदी जाटव दलित का वोट मिला था। इस गणित से समझा जा सकता है कि बीजेपी ने दलित वोट बैंक में मजबूत पकड़ बना लिया है। सवाल उठता है कि वर्ष 2022 में हालात क्या होगा? जानकार मानते हैं कि वर्ष 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा से करीब 12 फीसदी दलित वोट खिसक रहा है। जबकि, सपा को इतने ही दलित वोट का लाभ मिल रहा है। यदि ऐसा हुआ तो यहां सपा को इसका जबरदस्त लाभ मिल जायेगा। बीजेपी को पूर्वांचल में इसका खामियाजा उठाना पड़ सकता है। हालांकि, बीजेपी के रणनीतिकार यूपी चुनाव मे दलित वोट को साधने की जुगत में लगे हुए है।
यूपी चुनाव मे किंग मेंकर बनेगा सवर्ण
दरअसल, सवर्ण वोटर यूपी चुनाव में इस बार किंग मेकर की भूमिका में है। उत्तरप्रदेश में सवर्ण मतदाताओं की संख्या करीब 23 फ़ीसदी है। इसमें 11 फ़ीसदी ब्राम्हण, 8 फ़ीसदी राजपूत और 2 फ़ीसदी कायस्थ हैं। इसमें करीब दो फीसदी भूमिहार भी शामिल है। आजादी के बाद उत्तरप्रदेश की राजनीति में पकड़ रखने वाला यह वर्ग आज महज वोट बैंक बन कर रह गया है। शुरू में यह वर्ग कॉग्रेस का मजबूत आधार माना जाता था। मगर, बदले हालात में यह वर्ग तेजी से बीजेपी की ओर शिफ्ट हुआ है। बहरहाल, बसपा और सपा ब्राह्मणों को रिझाने के लिए भरपूर कोशिश कर रहे हैं। वर्ष 2007 में बसपा ने ब्राह्मण और दलित को एकजुट करके सत्ता पर कब्जा कर लिया था। बसपा के अतिरिक्त सपा भी इस बार ब्राह्मणो को साधने की जुगत में लगी है। उत्तरप्रदेश के करीब तीन दर्जन से अधिक जनपद में सवर्ण मतदाता जीत और हार का फैक्टर बनते रहें है। बीजेपी से नाराजगी की चर्चा के बीच ब्राह्मण मतदाता इस बार क्या करेगा? जानकार मानतें हैं कि सवर्ण मतदाताओं का बड़ा वर्ग यदि बीजेपी के साथ चला भी गया किंतु, कुछ छोटे-छोटे पॉकेट पर सपा और बसपा ने इसमें सेंधमारी कर ली तो परिणाम चौकाने वाला हो सकता है। अब होगा क्या यह तो 10 मार्च को ही पता चलेगा।