सोमवार, अगस्त 11, 2025 9:58 पूर्वाह्न IST

ये है हकीकत कर्बला के जंग की

कौशलेन्द्र झा

घटना 570 ई. की है। जब अरब की सरजमीं पर दरिंदगी अपनी चरम सीमा पर थी। तब ईश्वर ने एक संदेशवाहक पैगम्बर को धरती पर भेजा। जिसने अरब की जमीन को दरिंदगी से निजात दिलाई और निराकार अल्लाह का मनुष्य से परिचय देने के बाद मनुष्यों तक ईश्वर का संदेश पहुंचाया। जो, अल्लाह का दीन है। इसे इस्लाम का नाम दिया गया। दीन, केवल मुसलमानों के लिए नहीं आया। बल्कि, वह सभी मानव के लिए था। क्योंकि, बुनियादी रूप से दीन का इस्लाम में अच्छे कामों का मार्ग दर्शन किया गया है और बुरे कामों से बचने और रोकने के तरीके बताए गए हैं। जब दीने इस्लाम को मोहम्मद साहब ने फैलाना शुरू किया, तब अरब के लगभग सभी कबीलों ने मोहम्मद की बात मानकर अल्लाह का दीन कबूल कर लिया।

मोहम्मद के साथ मिले कबीलों की तादाद देखकर उस समय मोहम्मद के दुश्मन भी मोहम्मद साहब के साथ आ मिले। इनमें कुछ दिखावे में और कुछ डर से। लेकिन वे मोहम्मद से दुश्मनी अपने दिलों में रखे रहे। मोहम्मद के आठ जून, 632 ई. को देहांत के बाद ये दुश्मन धीरे-धीरे हावी होने लगे। पहले दुश्मनों ने मोहम्मद की बेटी फातिमा जहरा के घर पर हमला किया, जिससे घर का दरवाजा टूटकर फातिमा जहरा पर गिरा और 28 अगस्त, 632 ई. को वह इस दुनिया से चली गईं। फिर कई सलों बाद मौका मिलते ही दुश्मनों ने मस्जिद में नमाज पढ़ते समय मोहम्मद के दामाद हजरत अली के सिर पर तलवार मार कर उन्हें शहीद कर दिया। उसके बाद दुश्मनों ने मोहम्मद के बड़े नाती इमाम हसन को जहर देकर शहीद किया।

दुश्मन, मोहम्मद के पूरे परिवार को खत्म करना चाहते थे। इसलिए उसके बाद मोहम्मद के छोटे नाती इमाम हुसैन पर दुश्मन दबाव बनाने लगे कि वह उस समय के जबरन बने खलीफा यजीद जो नाम मात्र का मुसलमान था का हर हुक्म माने और यजीद को खलीफा कबूल करें। यजीद जो कहे उसे इस्लाम में शामिल करें और जो वह इस्लाम से हटाने को कहे वह इस्लाम से हटा दें। यानी मोहम्मद के बनाए हुए दीने इस्लाम को बदल दें। इमाम हुसैन पर दबाव इसलिए था, क्योंकि वह मोहम्मद के चहेते नाती थे।

इमाम हुसैन के बारे में मोहम्मद ने कहा था कि हुसैन-ओ-मिन्नी वा अना मिनल हुसैन यानी हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से यानी जिसने हुसैन को दुख दिया उसने मुझे दुख दिया। उस समय का बना हुआ खलीफा यजीद चाहता था कि हुसैन उसके साथ हो जाएं, वह जानता था अगर हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। लाख दबाव के बाद भी हुसैन ने उसकी किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया। तो यजीद ने हुसैन को कत्ल करने की योजना बनाई।

चार मई, 680 ई. में इमाम हुसैन मदीने में अपना घर छोड़कर मक्का शहर पहुंचे। यहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका कत्ल कर सकते हैं। हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर खून बहे। लिहाजा, हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफे की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज ने उन्हें घेर कर कर्बला ले आई। जब दुश्मनों की फौज ने हुसैन को घेरा था, उस समय दुश्मन की फौज बहुत प्यासी थी। इमाम ने दुश्मन की फौज को पानी पिलवाया। यह देखकर दुश्मन फौज के सरदार हजरत हुर्र अपने परिवार के साथ हुसैन से आ मिले। इमाम हुसैन ने कर्बला में जिस जमीन पर अपने तम्बू लगाए, उस जमीन को पहले हुसैन ने खरीदा। फिर, उस स्थान पर अपने खेमे लगाए। यजीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि हुसैन उसकी बात मान लें।

जब इमाम हुसैन ने यजीद की शर्तें नहीं मानी, तो दुश्मनों ने अंत में नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन के खेमों में पानी जाने पर रोक लगा दी गई। तीन दिन गुजर जाने के बाद जब इमाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो हुसैन ने यजीदी फौज से पानी मांगा। किंतु, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया। दुश्मनों ने सोचा हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे। जब हुसैन तीन दिन की प्यास के बाद भी यजीद की बात नहीं माने तो दुश्मनों ने हुसैन के खेमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत की और दुआ मांगते रहे कि मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाए, लेकिन अल्लाह का दीने इस्लाम, जो नाना मोहम्मद लेकर आए थे, वह बचा रहे।

10 अक्टूबर, 680 ई. को सुबह नमाज के समय से ही जंग छिड़ गई। जंग कहना ठीक न होगा। क्योंकि एक ओर 40 हजार की फौज थी, दूसरी तरफ चंद परिवार और उनमें कुछ मर्द। इमाम हुसैन के साथ केवल 75 या 80 मर्द थे। जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। इस्लाम की बुनियाद बचाने में कर्बला में 72 लोग शहीद हो गए। जिनमें दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असगर के गले पर तीन नोक वाला तीर मार कर उसकी हत्या कर दी। 13 साल के बच्चे हजरत कासिम को जिन्दा रहते घोड़ों की टापों से रौंद डलवाया और सात साल आठ महीने के बच्चे औन-मोहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर उसे शहीद कर दिया। इमाम हुसैन की शहादत के बाद दुश्मनों ने इमाम के खेमे भी जला दिए और परिवार की औरत और बीमार मर्दों व बच्चों को बंधक बना लिया।

दरअसल, जो लोग अजादारी (मोहर्रम) मनाते हैं, वह इमाम हुसैन की कुर्बानियों को ही याद करते हैं। कर्बला के बहत्तर शहीद और उनकी संक्षिप्त जीवनी 1. हज़रत अब्दुल्लाह – जनाबे मुस्लिम के बेटे और जनाबे अबू तालिब (अ) के पोते। 2. हज़रत मोहम्मद – जनाबे मुस्लिम के बेटे और जनाबे अबू तालिब (अ) के पोते। 3. हज़रत जाफ़र – हज़रत अक़ील के बेटे और जनाबे अबू तालिब (अ) के पोते। 4. हज़रत अब्दुर्रहमान – हज़रत अक़ील के बेटे और जनाबे अबू तालिब (अ) के पोते। 5. हज़रत मोहम्मद – हज़रत अक़ील के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते। 6. हज़रत मोहम्मद – अब्दुल्ला के बेटे, जाफ़र के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते। 7. हज़रत औन – अब्दुल्ला के बेटे जाफ़र के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते। 8. जनाबे क़ासिम – हज़रत इमाम हुसैन (अ) के बेटे, हज़रत इमाम अली (अ) के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते। 9. हज़रत अबू बक्र – हज़रत इमामे हसन (अ) के बेटे, हज़रत इमामे अली (अ) के पोते और जनाबे अबू तालिब (अ) के पर पोते। 10. हज़रत मोहम्मद – हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते। 11. हज़रत अब्दुल्ला – हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते। 12. हज़रत उसमान – हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते। 13. हज़रत जाफ़र – हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते। 14. हज़रत अब्बास – हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते। 15. हज़रत अली अकबर – हज़रत इमामे हुसैन (अ) और हज़रत इमामे अली (अ) के पोते। 16. हज़रत अब्दुल्लाह – हज़रत इमामे हुसैन (अ) और हज़रत इमामे अली (अ) के पोते। 17. हज़रत अली असग़र – हज़रत इमामे हुसैन (अ) और हज़रत इमामे अली (अ) के पोते। 18. हज़रत इमामे हुसैन (अ) – हज़रत इमामे अली (अ) बेटे और जनाबे अबु तालिब (अ) के पोते। कर्बला में शहीद होने वाले दूसरे शोहदा 1. जनाबे मुस्लिम बिन औसजा – रसूल अकरम (स) के सहाबी थे। 2. जनाबे अब्दुल्लाह बिन ओमैर कल्बी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 3. जनाबे वहब – इन्होंने इस्लाम क़बूल किया था, करबला में इमाम हुसैन (अ) की नुसरत में शहीद हुए। 4. जनाबे बोरैर इब्ने खोज़ैर हमदानी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 5. मन्जह इब्ने सहम – इमाम हुसैन (अ) की कनीज़ हुसैनिया से पैदा हुए थे। 6. उमर बिन ख़ालिद – कूफ़ा के रहने वाले और सच्चे मोहिब्बे अहलेबैत (अ) थे। 7. यज़ीद बिन ज़ेयाद अबू शाताए किन्दी – कूफ़ा के रहने वाले थे। 8. मजमा इब्ने अब्दुल्ला मज़जही – अली (अ) के सहाबी थे, यह जंगे सिफ़्फीन में भी शरीक थे। 9. जनादा बिन हारिसे सलमानी – कूफ़ा के मशहूर शिया थे, यह हज़रते मुस्लिम के साथ जेहाद में भी शरीक थे। 10. जन्दब बिन हजर किन्दी – कूफ़ा के प्रसिद्ध शिया व हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 11. ओमय्या बिन साद ताई – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 12. जब्ला बिन अली शैबानी – कूफ़ा के बाशिन्दे और हज़रत अली (अ) के सहाबी थे, करबला में हमल-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 13. जनादा बिन क़ाब बिन हारिस अंसारी ख़ज़रजी – मक्का से अपने कुन्बे के साथ करबला आए और हमल-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 14. हारिस बिन इमरउल क़ैस किन्दी – करबला में उमरे साद की फ़ौज के साथ आए थे लेकिन इमाम हुसैन (अ) के साथ शामिल होकर शहीद हुए। 15. हारिस बिन नैहान – हज़रते हमज़ा के ग़ुलाम नैहान के बेटे और हज़रते अली (अ) के सहाबी थे। 16. हब्शा बिन क़ैस नहमी – आलिमे दीन थे, हमल-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 17. हल्लास बिन अम्रे अज़्दी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 18. ज़ाहिर बिन अम्रे सल्मी किन्दी – रसूल अकरम (स) के सहाबी और हदीस के रावी थे। 19. स्वार बिन अबी ओमेर नहमी – हदीस के रावी थे, हमल-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 20. शबीब बिन अब्दुल्लाह – हारिस बिन सोरैय के ग़ुलाम थे, रसूल अकरम (स) और हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 21. शबीब बिन अब्दुल्लाह नहशली – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 22. अब्दुर्रहमान बिन अब्दे रब अन्सारी ख़ज़रजी – रसूल अकरम (स) के सहाबी थे। 23. अब्दुर्रहमान बिन अब्दुल्लाह बिन कदन अरहबी – जनाबे मुस्लिम के साथ कूफ़ा पहुँचे किसी तरह बचकर करबला पहुँचे और हमल-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 24. अम्मार बिन अबी सलामा दालानी – रसूल अकरम (स) और हज़रत अली (अ) के साथ भी शरीक थे। करबला में हमल-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 25. क़ासित बिन ज़ोहैर तग़लबी – यह और इनके दो भाई हज़रत अल (अ) के सहाबी थे। 26. कुरदूस बिन ज़ोहैर बिन हारिस तग़लबी – क़ासित इब्ने ज़ोहैर के भाई और हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 27. मसऊद बिन हज्जाज तैमी – उमरे साद की फ़ौज में शामिल होकर करबला पहुँचे लेकिन इमाम हुसैन (अ) की नुसरत में शहीद हुए। 28. मुस्लिम बिन कसीर सदफ़ी अज़्दी – जंगे जमल में हज़रत अली (अ॰स॰) के साथ थे, करबला में हमला-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 29. मुस्कित बिन ज़ोहैर तग़लबी – करबला में हमला-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 30. कनाना बिन अतीक़ तग़लबी – करबला में हमला-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 31. नोमान बिन अम्रे अज़दी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे, हमला-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 32. नईम बिन अजलान अंसारी – हमला-ए-ऊला (यज़ीदियों की तरफ़ से होने वाला पहला आक्रमण) में शहीद हुए। 33. अम्र बिन जनादा बिन काब ख़ज़रजी – करबला में बाप की शहादत के बाद माँ के हुक्म से शहीद हुए। 34. हबीब इब्ने मज़ाहिर असदी – हज़रत रसूल अकरम (स) के सहाबी, हज़रत अली (अ), हज़रत इमामे हसन (अ) के सहाबी थे, इमामे हुसैन (अ) के बचपन के दोस्त थे और करबला में शहीद हुए। 35. मोसय्यब बिन यज़ीद रेयाही – हज़रत हुर के भाई थे। 36. जनाबे हुर बिन यज़ीद रेयाही – यज़ीदी फ़ौज के सरदार थे, बाद में इमामे हुसैन (अ) की ख़िदमत में हाज़िर होकर शहादत का गौरव प्राप्त किया। 37. हुज़्र बिन हुर यज़ीद रेयाही – जनाबे हुर के बेटे थे। 38. अबू समामा सायदी – आशूर के दिन नमाज़े ज़ोहर के एहतेमाम में दुश्मनों के तीर से शहीद हुए। 39. सईद बिन अब्दुल्लाह हनफ़ी – ये भी नमाज़े ज़ोहर के समय इमाम हुसैन (अ) के सामने खड़े हुए और दुश्मनों के तीर से शहीद हुए। 40. ज़ोहैर बिन क़ैन बिजिल्ली – ये भी नमाज़ ज़ोहर में ज़ख़्मी होकर जंग में शहीद हुए। 41. उमर बिन करज़ाह बिन काब अंसारी – ये भी नमाज़े ज़ोहर में शहीद हुए। 42. नाफ़े बिन हेलाल हम्बली – नमाज़े ज़ोहर की हिफ़ाज़त में जंग की और बाद में शिम्र के हाथों शहीद हुए। 43. शौज़ब बिन अब्दुल्लाह – मुस्लिम इब्ने अक़ील का ख़त लेकर कर्बला पहुँचे और शहीद हुए। 44. आबिस बिन अबी शबीब शकरी – हज़रत इमाम अली (अ) के सहाबी थे, रोज़े आशूरा कर्बला में शहीद हुए। 45. हन्ज़ला बिन असअद शबामी – रोज़े आशूर ज़ोहर के बाद जंग की और शहीद हुए। 46. जौन ग़ुलामे अबूज़र ग़फ़्फ़ारी – हब्शी थे, हज़रत अबूज़र ग़फ़्फ़ारी के ग़ुलाम थे। 47. ग़ुलामे तुर्की – हज़रत इमामे हुसैन (अ) के ग़ुलाम थे, इमाम ने अपने बेटे हज़रत इमामे ज़ैनुल आबेदीन (अ) के नाम हिबा कर दिया था। 48. अनस बिन हारिस असदी – बहुत बूढ़े थे, बड़े एहतेमाम के साथ शहादत नोश फ़रमाई। 49. हज्जाज बिन मसरूक़ जाफ़ी – मक्के से इमाम हुसैन (अ) के साथ हुए और वहीं से मोअज़्ज़िन का फ़र्ज़ अंजाम दिया। 50. ज़ियाद बिन ओरैब हमदानी – इनके पिता हज़रत रसूल अकरम (स) के सहाबी थे। 51. अम्र बिन जुनदब हज़मी – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 52. साद बिन हारिस – हज़रत अली (अ) ग़ुलाम थे। 53. यज़ीद बिन मग़फल – हज़रत अली (अ) के सहाबी थे। 54. सोवैद बिन अम्र ख़सअमी – बूढ़े थे, करबला में इमाम हुसैन (अ॰स॰) के तमाम सहाबियों में सबसे आख़िर में जंग में ज़ख्मी हुए थे। होश में आने पर इमाम हुसैन (अ) की शहादत की ख़बर सुन कर फिर जंग की और शहीद हुए।

मीनापुर के डेढ़ हजार ग्राहको के एक करोड़ फंसे

कौशलेन्द्र झा

मुजफ्फरपुर। सिवाईपट्टी थाना के छितरा स्थित प्राथमिक कृषि साख सहयोग समिति बैंक की शाखा में ताला लटक रहा है। इससे करीब डेढ़ हजार खाताधारी चिंतित व परेशान हैं। बैंक में उनलोगों के करीब एक करोड़ रुपये जमा हैं। खाताधारी बिंदेश्वर प्रसाद ने गबन का आरोप लगाते हुए एक सितम्बर को सिवाईपट्टी थाने में एफआईआर दर्ज कराई हुई है।

एफआईआर में शाखा प्रबंधक महेश्वर प्रसाद यादव व पैक्स अध्यक्ष मथुरा प्रसाद चौधरी को आरोपित बनाया गया है। थानाध्यक्ष परवेज अली कि माने तो पुलिस पूरे मामले की जांच में जुटी है। इस बैंक में स्थानीय कारोबारियों के अलावा सब्जी व चाय-नाश्ता की दुकान चलाने वाले अधिकांश छोटे दुकानदारों की कमाई जमा है। जनकल्याण संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष अमित साह बताते हैं कि बैंक के अचानक बंद हो जाने से कई गरीब परिवार की बेटियों की शादी रुक गई है। कई व्यवसायियों की दुकाने बंद पड़ी हैं और कई कर्ज में डूब चुके हैं।

कहते हैं ग्राहक

हिसाब देने वाला कोई नहीं :

पूर्व सरपंच मो. उलफत हुसैन कहते हैं कि पोती की शादी के लिए छह लाख रुपये बैंक में जमा किया था। पर पिछले छह महीने से शाखा प्रबंधक फरार हैं और रुपये का हिसाब देने वाला कोई नहीं है।

कैसे चुकायें कर्ज :

डेराचौक के जूता-चप्पल व्यवसायी मो. नाजिम कहते हैं कि मेहनत की कमाई से बैंक में डेढ़ लाख रुपये जमा किया था। साहूकार से लिया कर्ज चुकता करने का समय आया तो बैंक बंद हो गया।

खेती करने पर संकट :

किसान बिंदेश्वर प्रसाद कहते हैं कि पिछले साल अनाज बेच कर दो लाख चालीस हजार रुपये जमा किया था। अब बैंक के बंद हो जाने से नई फसल लगाने के लिए आर्थिक तंगी आड़े आ रही है।

सरकारी दावों का सच | जानिए पुरी हकीकत

एक तरफ सरकार जहा दावा करती की, उनके द्वारा चलने वाली सारी योजनायें गरीबों तक पहुंच रही है..वही वास्तविकता में हकीकत कुछ और ही बयां करती है, देखिए रिपोर्ट

टूटी कुर्सी, कहीं विचारधाराओं में बदलाव का संकेत तो नही?

कौशलेन्द्र झा

मुजपफ्फरपुर। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले, हम भारतवंशियों को आखिर ऐसा क्या हो गया है? क्यों हम अपने ही आचरणों से अपना ही जगहसाई होने के बावजूद गौरवान्वित महसूस करते हैं? महज, एक जीत की जुगत में दूसरो पड़ कुत्सित व अधारहीन लांछन लगाते हैं।

जी हॉ…। मैं बात कर रहा हूं, प्रजातांत्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन का। मैं बात कर रहा हूं, अपने रहनुमाओं की, जिनका आचरण चुभने लगा है। देश के सबसे निचले सदन… यानी, पंचायत समिति में बैठे हमारे माननीय जब कुर्सी पटकने लगे तो इसे क्या कहेंगे? महज एक घटना या बदलते राजनीति का संकेत?

दरअसल, विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में कुर्सी पटकना हमारी राजनीतिक संस्कृति बनती जा रही है। कहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा के लिए यह पुरानी बातें हैं। वहां अलग अलग परिवेश से जीत कर लोग आते हैं। किंतु, पंचायत समिति में तो हम सभी एक ही समाजिक परिवेश से है। कोई चाचा है तो कोई बहन…। बिहार के मुजफ्फरपुर जिला अन्तर्गत मीनापुर प्रखंड मुख्यालय में पंचायत समिति की बैठक के दौरान पिछले दिनो जो हुआ, वह एक ज्वलंत मिशाल है, हमारी समाजिक चेतना के गिरते स्तर का।

बात सिर्फ सदन में कुर्सी पटकने की नही है। बड़ी बात ये है कि क्या सत्ता के मद में हम अपने समाजिक रिश्तो की मर्यादा को भूल गयें हैं? क्या हमारी संस्थाएं, हमारे समाजिक मूल्यों को तार- तार करने को आमदा हो गई है? क्या, बेजान कुर्सी को पटकने से महिला सशक्तिकरण हो जायेगा या महिला की आर में की जा रही राजनीति से समाज के कमजोर तबको का विकास हो जायेगा? या, फिर इसे हम महज एक राजनीति परंपरा के रुप में अब गांव में स्थापित करना चाहतें हैं? सवाल, और भी है…।

दरअसल, हालात निम्नतर होता जा रहा है। समाजिक तानाबाना बिखरने के कगार पड़ है। ऐसे में हम उम्मीद किससे करें? कठपुतली बने प्रशासन से या समाज के कथित प्रबुध्द लोगो से? ऐसे प्रबुध्द लोगो से जो यह मान कर चलते हैं कि यह मेरा काम नही है? दरअसल, आज के मौजू में यह बड़ा सवाल है और हम इसे आपके चिंतनशील विवेक की कसौटी पर छोड़े जाते हैं।