टूटी कुर्सी, कहीं विचारधाराओं में बदलाव का संकेत तो नही?

कौशलेन्द्र झा

मुजपफ्फरपुर। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले, हम भारतवंशियों को आखिर ऐसा क्या हो गया है? क्यों हम अपने ही आचरणों से अपना ही जगहसाई होने के बावजूद गौरवान्वित महसूस करते हैं? महज, एक जीत की जुगत में दूसरो पड़ कुत्सित व अधारहीन लांछन लगाते हैं।

जी हॉ…। मैं बात कर रहा हूं, प्रजातांत्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन का। मैं बात कर रहा हूं, अपने रहनुमाओं की, जिनका आचरण चुभने लगा है। देश के सबसे निचले सदन… यानी, पंचायत समिति में बैठे हमारे माननीय जब कुर्सी पटकने लगे तो इसे क्या कहेंगे? महज एक घटना या बदलते राजनीति का संकेत?

दरअसल, विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में कुर्सी पटकना हमारी राजनीतिक संस्कृति बनती जा रही है। कहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा के लिए यह पुरानी बातें हैं। वहां अलग अलग परिवेश से जीत कर लोग आते हैं। किंतु, पंचायत समिति में तो हम सभी एक ही समाजिक परिवेश से है। कोई चाचा है तो कोई बहन…। बिहार के मुजफ्फरपुर जिला अन्तर्गत मीनापुर प्रखंड मुख्यालय में पंचायत समिति की बैठक के दौरान पिछले दिनो जो हुआ, वह एक ज्वलंत मिशाल है, हमारी समाजिक चेतना के गिरते स्तर का।

बात सिर्फ सदन में कुर्सी पटकने की नही है। बड़ी बात ये है कि क्या सत्ता के मद में हम अपने समाजिक रिश्तो की मर्यादा को भूल गयें हैं? क्या हमारी संस्थाएं, हमारे समाजिक मूल्यों को तार- तार करने को आमदा हो गई है? क्या, बेजान कुर्सी को पटकने से महिला सशक्तिकरण हो जायेगा या महिला की आर में की जा रही राजनीति से समाज के कमजोर तबको का विकास हो जायेगा? या, फिर इसे हम महज एक राजनीति परंपरा के रुप में अब गांव में स्थापित करना चाहतें हैं? सवाल, और भी है…।

दरअसल, हालात निम्नतर होता जा रहा है। समाजिक तानाबाना बिखरने के कगार पड़ है। ऐसे में हम उम्मीद किससे करें? कठपुतली बने प्रशासन से या समाज के कथित प्रबुध्द लोगो से? ऐसे प्रबुध्द लोगो से जो यह मान कर चलते हैं कि यह मेरा काम नही है? दरअसल, आज के मौजू में यह बड़ा सवाल है और हम इसे आपके चिंतनशील विवेक की कसौटी पर छोड़े जाते हैं।

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