संजय कुमार सिंह। मुजफ्फरपुर जिले का महंथ मनियारी गांव रहस्य भरे मठ, संत की समाधि स्थल व मंदिरों के लिए जाना जाता है। महंथ मनियारी गांव मुजफ्फरपुर जिला के कुढ़नी प्रखंड में अवस्थित है। मुजफ्फरपुर शहर से 15 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में
अवस्थित यह स्थल अपनी कई ऐतिहासिक धरोहरो व आस्था के रूप में जानी जाती है। करीब चार सौ वर्ष पूर्व यह स्थल जंगलों से भड़ा परा था। तब संत मणिराम को मुगल शासक ने यहां की सात सौ एकड़ जमीन दान में दे दी थी। उन्होंने यहां एक झोपड़ी बना कर रहना शुरू किया। बाद में यहां एक मठ बना दिया। वे यहां अपनी अध्यात्म साधना में लीन रहते थे। मान्यता है कि अपने अंत समय में उन्होंने इसी मठ में जिन्दा समाधि ले ली थी।
मणिराम सिख पंथ के गुरु गुरुनानक जी के पुत्र शिरचन महाराज के शिष्य थे। मठ परिसर में एक पोखर के किनारे शिव मंदिर है। इसके बारे में एक रोचक कहानी है। मंदिर के पास एक काला नाग व सफेद नागीन का जोड़ा रहता है। एक बार मठ के वर्तमान महंथ वीरेश कुमार की बहन निजी परेशानियों के निदान के लिए कर्नाटक गईं जहाँ एक संत ने उनसे कहा आपके मठ परिसर के शिवालय में एक काला नाग व नागीन दूध के लिए भटक रहे हैं उन्हें दूध दीजिए सारी परेशानी दूर होगी। उसके बाद गांव के एक भक्त कैलाश पासवान रोज पूजा कर सुबह एक मिट्टी के बर्तन में एक लीटर दूध रख देते थे, जो दोपहर होते ही नाग व नागीन पी जाते थे। इसे कई बार लोगों ने देखने का प्रयास भी किया लेकिन नहीं देख पाए। हालांकि सांपों का यह जोड़ा यदा-कदा मंदिर के आसपास दीख जाता था। एक वर्ष पूर्व कैलाश की कैंसर से मौत हो गई। तब से मंदिर में दूध रखने वाला कोई नहीं है।
मठ के प्रबंधक रामाकांत मिश्र बताते हैं कि 1928 में तत्कालीन महंथ दर्शन दास ने मणिराम की समाधी स्थान पर विशाल मंदिर व राधे कृष्ण की प्रतिमा स्नाथापित कराई जो आज भी भक्तजनो के लिए आस्था का केन्द्र बनी हुई है। यहां पर अलग- अलग प्रांतों से सैकड़ों की संख्या में नागा संन्यासी महिनो रहा करते थे। कहतें हैं कि नागा साधुओं के ठहरने के लिए महंथ दर्शनदास ने जो भवन बनवाया, वह गर्मी
में ठंडा व ठंडी मे गर्मी देता है। इस भवन ने दर्जनों भूकंप के झटके झेले हैं, फिर भी जस का तस खड़ा है। कहते है संत मणिराम की एक लाठी थी जिसे लोग उनका आशीर्वाद मानते थे। कहा जाता है कि प्रसव पीड़ा के दौरान उनकी लाठी रखने मात्र से पांच मिनट में स्वस्थ बच्चे का जन्म हो जाता था। इतना ही नही उस जमाने में मठ से सटे एक आखाड़ा बनाई गई थी, जहां कुस्ती खेलने के लिए दूर दूर के पहलवान, अपनी पहलवानी का परिचय देने आते थे। कहा जाता है कि इस आखाड़ा से कुसती जीतने को पहलवान अपना सौभाग्य समझते थे। संत मणिराम अपने जमाने से गुरूणानक जी की स्वयं हस्तलिखित दुर्लभ सिख पंथ के कई पांडुलिपि संयोग हुए थे, जो आज भी सुरक्षित है। इन पांडलिपि को देखने के लिए आज भी यदा कदा बाहर से लोगों के आने का सिलसिला जारी है। आज भी यहां समय-समय पर शिख पंथ के अनुयायी मठ में पहूंच कर पांडुलिपि की पूजा अर्चना व शब्द कीर्तन करते है। किन्तु, आज इस ऐतिहासिक स्थल को पहचान दिलाने वाला कोई नही है।
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