राजेश कुमार
आज पूरे देश में रोहिंग्या मुसलमान के शरणार्थी होने या होने देने में लोग अलग अलग तरह से अपना मंतव्य प्रकट कर रहे हैं। लेकिन कोई भी ऐसा भारतीय नज़र नही आ रहा, जो चाहता हो कि रोहिंग्या भारत में बसे।
7 जुलाई 2013 में गया के महाबोधि मंदिर में एक के बाद एक नौ धमाके हुए थे, जिसमें मंदिर के साथ साथ बोधिबृक्ष को भी उड़ाने की साजिश की गई थी। समूची दुनिया में बौद्धों के आस्था का महाकेन्द्र उस दिन पूरी तरह हिल गया था।
उस बम धमाके में जिन आतंकियों को गिरफ्तार किया गया, उन्होंने पुलिस को बताया था कि म्यांमार में रोहिंग्या दमन का बदला चुकाने के लिए यह साजिश रची गई।
नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू म्यांमार की स्टेट काउंसलर हैं। इस मामले में पहली बार राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि रोहिंग्या की वापसी पर कोई ऐतराज नही, मगर घर वापसी से पहले उनकी जांच की जाएगी।
जब रोहिंग्या को अपने घर में जांच की जरूरत है तो हम क्यों उस पर विस्वास करें और उन्हें शरण दें? सू ने यह भी कहा कि 70 साल से जारी अस्थिरता को अब समाप्त करने की जरूरत है। क्या यह संयोग नही की 70 वर्षों से हम भी जम्मू कश्मीर में इसी अस्थिरता के शिकार हैं? क्या हमें समस्या का समाधान नही ढूंढना चाहिए?
कुछ लोग पंजाबियों और सिंधियों का उदाहरण पेश करते हैं। ऐसा कहते समय वे भूल जाते हैं कि हमें दिक़्क़त अदनान सामी या तस्लीमा नसरीन से नही, बल्कि उन लोगों से है, जो हजारों की तादाद में हर रोज़ गैर-कानूनी ढंग से हिंदुस्तान की सरहद में दाखिल होते हैं। यही वजह है कि केंद्रीय गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने सरकार का रुख स्पष्ट करते हुए कहा है कि रोहिंग्या कोई शरणार्थी नही हैं, बल्कि वह अवैध प्रवासी हैं। उन्हें कभी भी वापस भेजा जा सकता है। फिर इस मुद्दे को लेकर बेवजह की राजनीति करना, वास्तव में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा नही, तो और क्या है?