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इस्ट इंडिया कंपनी के आने से लेकर भारत के आजाद होने तक क्या और कैसे हुआ

गुलाम भारत की अनकही दास्तान

KKN न्यूज ब्यूरो। आज हम आपको इतिहास के पन्नों में लेकर चलेंगे। आपको आजादी का मतलब बतायेंगे। यह जरूरी इसलिए है क्योंकि, इसको लेकर आज कई तरह की बहस शुरू हो गई है। अलग- अलग दलीलें दी जा रही है। हम उस दौर में जी रहें हैं, जहां सवाल भी सवालों के घेरे में है। ऐसे में हम आपके लिए गुलाम भारत की महत्वपूर्ण कहानी संक्षेप में लेकर आये हैं। इस्ट इंडिया कंपनी के आने से लेकर भारत के आजाद होने तक…। क्या हुआ… कैसे हुआ और क्यों हुआ? ऐसे तमाम सवालों को टटोलने की कोशिश के साथ कई दिलचस्प और अनकही ब्रिटिश इंडिया के सेनेरियों के साथ…।

गौरवमयी इतिहास क्यों उलझा

ब्रिटिश इंडिया के दिनों की संघर्ष, जुझाडूपन और उम्मीदें कहा गुम हो गई? हमने अपने राजनीतिक नफा नुकसान की वजह से अपने ही गौरवमयी इतिहास को उलझा दिया है। सही तस्वीर के अभाव में लोग गुमराह होने लगे हैं। इसका सर्वाधिक खामियाजा युवाओं को भुगतना पड़ रहा है। सवाल उठता है कि बातों को आसान भाषा में कैसे समझा जाये? इसके लिए पूरी कहानी को चार हिस्सों में या चार कालखंडों में बांट कर, समझने की कोशिश करतें हैं।

पहला कालखंड 149 वर्षो का

पहला कालखंड 1608 से शुरू होकर 1757 तक का है। करीब 149 वर्षो का यही वह दौर था जब ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी भारत में कदम रखे थे। इससे पहले फ्रेंच, पुर्तगाली और डच के काराबारियों का भारत में दबदबा कायम हो चुका था। उनदिनों सूती कपड़ा, रेशम, काली मिर्च, लौंग, इलायची और दालचीनी के उत्पादन का सबसे कड़ा हब भारत हुआ करता था। यूरोप को इसकी जरूरत थी। अपनी इन्हीं जरूरतों को पूरा करने के लिए ब्रिटेन ने इस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार करने की अनुमति दे दी।

समुद्र के रास्ते सूरत पहुंची कंपनी

अनुमति मिलते ही वर्ष 1608 में ईस्ट इंडिया कंपनी की पहली जहाज समुद्र के रास्ते सूरत पहुंचती है। भारत में उस समय मुगल शासक जहांगीर का हुकूमत चल रहा था। कंपनी बहादुर ने जहांगीर को महंगा- महंगा तोहफा देकर उसका दिल जीत लिया। इसके बाद बादशाह जहांगीर ने कंपनी को यानी इस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार करने की छूट दे दी।

बादशाह को दिया मंहगा तोहफा

कंपनी बहादुर ने भारत में व्यापार करने के साथ- साथ भारत की राजनीति में भी दखल देना शुरू कर दिया। बादशाह को यूरोप से आई महंगी तोहफा का ऐसा चस्का लगा कि उन्होंने, कंपनी के व्यापार टैक्स में भारी छूट दे दी। इसी के साथ कारोबार की सुरक्षा के लिए कंपनी को सेना की छोटी टुकड़ी रखने की अनुमति भी मिल गया। खेला यही से शुरू हो गया। फ्रेंच, पुर्तगाली और डच  से आये कारोबारी इस्ट इंडिया कंपनी के सामने अब बौना पड़ने लगे थे।

कंपनी ने की टैक्स में चोरी

बादशाह से टैक्स में छूट मिलते ही कंपनी ने भारत को लूटना शुरू कर दिया। हालात ये हो गया कि कंपनी के कई अधिकारी चोरी छिपे अपना निजी कारोबार करने लगे थे। यानी कंपनी बहादुर ने टैक्स की चोरी शुरू कर दी। एक तरफ तो पहले से टैक्स में भरपुर छूट मिला हुआ था। दूसरे कि उसमें भी चोरी होने लगी। अब इस्ट इंडिया कंपनी ने दोनों हाथ से भारत से लूटना शुरू कर दिया।

नबाब ने जब्त की कंपनी की संपत्ति

बंगाल के नबाब सिराजुद्दौला को बात समझ में आने लगा था। नतीजा, नवाब ने कंपनी बहादुर का विरोध कर दिया। सिराजुद्दौला ने बंगाल में टैक्स की चोरी पर रोक के आदेश दे दिए। हालांकि, कंपनी के अधिकारी पर इस आदेश का कोई असर नहीं हुआ। इसके बाद नबाब की सेना ने कंपनी के कलकत्ता की संपत्ति जब्त कर ली और इस दौरान कंपनी के कई बड़े अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया।

कंपनी ने क्लाइव को कलकत्ता भेजा

उनदिनों बंगाल के अतिरिक्त मद्रास में कंपनी के करोबार का बहुत बड़ा हब था। वहीं मद्रास, जिसको आज चेन्नई कहा जाता है। उनदिनों कंपनी की ओर से रॉबर्ट क्लाइव मद्रास में तैनात थे। वो नौसेना के अधिकारी थे और बंगाल की घटना के बाद क्लाइव को मद्रास से बंगाल भेज दिया गया। बंगाल पहुंचते ही क्लाइव ने सिराजुद्दौला के सेना में फुट डाल दी। क्लाइव को जैसे ही लगा कि उसकी योजना सफल हो चुकी है। उसने सिराजुद्दौला पर हमला कर दिया।

पलासी में हुआ युद्ध

वह साल 1757 का था और युद्ध पलासी के मैदान में लड़ी गई थी। इसलिए इस युद्ध को पलासी का युद्ध कहा जाता है। सिराजुद्दौला के सेनापति थे मीर जाफर…। जो अंग्रेज से मिल चुके थे। नतीजा, सिराजुद्दौला पलासी की लड़ाई हार गए और मीर जाफर ने उनकी हत्या कर दी। भारत में अंग्रेज अधिकारी की यह पहली बड़ी जीत थी। इस जीत के बाद अंग्रेजों ने भारत पर सीधा हुकूमत करने की जगह मीर जाफर को अपना कटपुतली बना कर नबाब की गद्दी पर बैठा दिया और बंगाल पर शासन करने लगे। हालांकि, यह लम्बा नहीं चला और बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजो ने मीर जाफर को गद्दी से उतार कर भारत पर सीधा हुकूमत शुरू दिया। गुलात भारत की पटकथा यहीं से शुरू होता है। पलासी और बक्सर के युद्ध को विस्तार से समझना चाहते है तो केकेएन पर पहले से वीडियो उपलब्ध है। आप चाहे तो देख सकते है।

दूसरा कालखंड 100 साल

यहां से दूसरा कालखंड शुरू होता है। यह कहानी करीब 100 साल की है। इसको आप 1757 से 1857 तक का कालखंड मान सकते है। कहतें हैं कि जल्दी ही कंपनी को लगने लगा कि कठपुतली नवाब काम नहीं आ रहें हैं। इस बीच मीर जाफर भी अपनी ताकत बढ़ाने लगा था। फिर बक्सर की लड़ाई हुई और फाइनली 1765 में मीर जाफर की मौत के बाद कंपनी ने रियासत अपने हाथ में ले लिया। शुरू के दिनों में मुगल बादशाह ने थोड़े प्रतिकार जरूर किये। पर, जल्दी ही उनको बात समझ में आ गई और मुगल बादशाह शाह आलम ने अंग्रेजो के साथ एक समझौता कर लिया। इसके तहत कंपनी को बंगाल का दीवान बना दिया गया। बंगाल का मतलब था आज का पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा और बंगलादेश…।

अंग्रेजों की नजर हिन्दुस्तान पर

आसाम को छोड़ कर करीब- करीब पूरा पूर्वी भारत पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। यही से भारत में कंपनी बहादुर का अपना अस्तित्व शुरू हो जाता है। मोटे तौर पर पहले फेज की कहानी में हम आपको यह बात बता चुके है। बंगाल विजय के बाद अंग्रेजों की नजर अब पूरे हिन्दुस्तान पर था। यानी अंग्रेज अब पूरे हिन्दुस्तान को अपने अधीन करना चाहते थे। किंतु, यहां अंग्रेजों के सामने दो बड़ी चुनौतियां थीं। दक्षिण में टीपू सुल्तान और विंध्य में मराठा…। दरअसल, टीपू सुल्तान ने फ्रेंच व्यापारियों से मजबूत गठजोड़ कर लिया था। उसकी सेना भी अपेक्षकृत अधिक मजबूत थी। दूसरी ओर मराठा दिल्ली के जरिए देश पर शासन करना चाहते थे।

टीपू की मौत और मराठा पराजित

कंपनी ने टीपू और उनके पिता हैदर अली से कुल चार युद्ध लड़े। अंतिम युद्ध 1799 में हुआ। यह लड़ाई श्रीरंगपट्टनम में हुई थी और इसमें टिपू सुल्तान मारे गए। इधर, पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठा सैनिक बुरी तरीके से पराजित हो गए। इस हार के बाद मराठा साम्राज्य टुकड़ों में बंटा। इस बीच कंपनी बहादुर ने 1819 में पुणे के पेशवा को कानपुर के पास बिठुर में ही समेट दिया था। इस बीच, पंजाब बड़ी चुनौती बन कर उभरने लगा था। महाराजा रणजीत सिंह जब तक रहे… तब तक उन्होंने अंग्रेजों की दाल नहीं गलने दी। लेकिन 1839 में उनकी मौत के बाद हालात बदलने लगा। दो लड़ाइयां हुई और दस साल बाद पंजाब पर अंग्रेज काबिज हो गये।

अंग्रेजों ने बनाई उत्तराधिकार कानून

अब तक अंग्रेज काफी मजबूत हो चुके थे। वर्ष 1848 में लॉर्ड डलहौजी ने उत्तराधिकार कानून बना दिया। इस कानून के तहत जिस शासक का कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं होता था… उस रियासत को कंपनी अपने कब्जे में ले लेती थी। इसी कानून को आधार बना कर कंपनी बहादुर ने सतारा,  संबलपुर,  उदयपुर,  नागपुर और झांसी को इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन करने का फरमान जारी कर दिया। कहतें है कि लॉर्ड डलहौजी के इसी फरमान के बाद भारत में 1857 की क्रांति का बीजारोपण हो गया था।

मंगल पांडेय ने किया विद्रोह

अंग्रेज अधिकारी भारत के लोगों को हीन भाव से देखने लगे थे। इससे आम लोगो में असंतोष उभरने लगा था। इस बीच खबर आई कि नई बंदूक के कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी का लेप है। इससे कंपनी के भारतीय सिपाही भड़क गए। सबसे पहले मेरठ के बैरक में सिपाही मंगल पांडेय ने 1857 में विद्रोह कर दिया। कंपनी ने मंगल पांडेय को तत्काल फांसी पर चढ़ा दिया और विद्रोह में शामिल अन्य सिपाहियों को कठोर यातानाएं दी गई।

झांसी, अवध और दिल्ली में विद्रोह

सिपाहियों का गुस्सा फुट पड़ा। झांसी, अवध और दिल्ली होते हुए विद्रोह की चिंगारी बिहार तक पहुंच गई। दूसरी ओर लॉर्ड डलहौजी के उत्तराधिकार कानून के खिलाफ पनप रहे असंतोष ने विद्रोह का रूप ले लिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने कंपनी बहादुर के खिलाफ खुला जंग का ऐलान कर दिया। कंपनी के अधिकारी कुछ समझ पाते इससे पहले नाना साहेब के नेतृत्व में मराठा सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। इस बीच मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने विद्रोह का कमान अपने हाथों में लेकर अंग्रेजों की मुश्किल बढ़ा दी।

कुछ राजवंशों ने दिया धोखा

कंपनी की सत्ता भारत में लड़खाने लगी थी। अंग्रेज घबरा कर भागने लगे थे। देश आजाद होने के बहुत करीब पहुंच चुका था। तभी पश्चिम के कुछ राजवंशो ने इस्ट इंडिया कंपनी से हाथ मिला लिया। इससे अंग्रेजों का हौसला बुलंद हुआ और ताकत के दम पर विद्रोह को कुचल दिया गया। इस तरीके से देश को आजादी मिलते- मिलते रह गई।

तीसरा खालखंड 57 वर्षो का

कहानी का तीसरा कालखंड कुल मिला कर 57 वर्षो का कालखंड है। यानी 1858 से लेकर 1915 तक का कालखंड…। वर्ष 1857 का विद्रोह अब लगभग शांत हो चुका था। पर, अंग्रेज सकते में थे। इस बीच जून 1858 में ब्रिटिश संसद ने एक कानून पारित किया। इसके तहत भारत की शासन सत्ता को ईस्ट इंडिया कंपनी से छिन कर अब सीधे ब्रिटेन की महारानी ने अपने हाथों में ले लिया। यानी यहां से अब भारत प्रत्यक्ष् रूप से ब्रिटेन का गुलाम हो गया।

ब्रिटेन ने बनाया इंडिया काउंसिल

पिछले करीब 100 साल से हम इस्ट इंडिया कंपनपी के गुलाम थे। अब सीधे ब्रिटेन के गुलाम हो गए। ब्रिटिश मंत्रिमंडल के सदस्य को भारत का मंत्री बना दिया गया। शासन चलाने के लिए इंडिया काउंसिल बनाई गई। गवर्नर जनरल को वायसराय बना दिया गया। वायसराय इंग्लैंड के राजा या रानी का प्रतिनिधि बन कर भारत पर शासन करने लगा। इस तरह से अंग्रेजो ने सीधे-सीधे भारत की बागडोर अपने हाथों में ले ली।

पूरी तरह से गुलाम हो गया भारत

1858 में जब ब्रिटिश राज की भारत में शुरूआत हुई… उस वक्त के भूगोल पर गौर करें तो यह आज के भारत के अतिरिक्त आज का बांग्लादेश, आज का पाकिस्तान और आज का बर्मा भी इसमें शामिल था। यानी उनदिनो वर्मा भी भारत का हिस्सा हुआ करता था। वर्मा को आज म्यामार कहा जाता है। आज वह भी एक स्वतंत्र देश है। दूसरी ओर गोवा और दादर नगर हवेली पर उनदिनो पुर्तगालियों का कब्जा था। इस बीच पुडुचेरी के इलाके पर फ्रांस का कब्जा था। यानी भारत पूरी तरीके से गुलाम हो चुका था।

भारत में पश्चात संस्कृति का फैलाव

ब्रिटिश शासन ने भारत के तटीय इलाकों में अपनी पैठ को मजबूत करना शुरू कर दिया। मद्रास,  बॉम्बे और कलकत्ता को व्यापार का मुख्य केन्द्र बनाया गया। पुणे में सम्भांत लोगो को बसाया जाने लगा। यहीं वह दौर था जब भारत के समाज पर पाश्चायत संस्कृति का असर जड़ पकड़ने लगा था। इसी कालखंड में कई समाजिक बदलाव भी हुए। हालांकि, अंग्रेजो को लेकर भारतीय के मन में भीतर ही भीतर असंतोष अभी भी बरकरार था। लोग अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होना चाहते थे।

ह्यूम ने की कॉग्रेस की स्थापना

भारत की इस कश-म-कश को एक रिटायर्ड ब्रिटिश अधिकारी समझ चुके थे। उनका नाम था- एलेन ओक्टोवियन ह्यूम…। ह्यूम एक बड़े ब्रिटिश अधिकारी हुआ करते थे और वायसराय के भी बहुत करीबी माने जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि वायसराय के कहने पर ह्यूम ने दिसम्बर 1885 में इंडियन नेशनल कॉग्रेस की स्थापना कर दी। भारत के सिविल सोसायटी को ब्रिटिश शासन से जोड़ कर रखना… इसका मकशद हुआ करता था। कालांतर में यही संगठन कॉग्रेस पार्टी के नाम से जानी गई।

कॉग्रेस का हुआ विस्तार

ह्यूम ने कलकत्ता में सुरेंद्रनाथ बनर्जी और पूना में गोविंद रानाड़े को यह जिम्मेदारी दी, कि वो भारत के सिविल सोशाइटी को कॉग्रेस से जोड़ दे। उनदिनो भारत के कई हिस्सो में प्रार्थना समाज और आर्य समाज के नाम से छोटा- छोटा संगठन काम कर रहा था। वर्ष 1906 आते- आते ढाका में मुस्लिम लीग ने आकार लेना शुरू कर दिया था। अंग्रेज समझने लगे थे कि लोग इखट्ठा हो गए तो भारत पर शासन करना मुश्किल हो जायेगा।

बंगाल विभाजन की त्रासदी

वर्ष 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। इसका नतीजा ये हुआ कि लोगो का असंतोष एक बार से आकार लेने लगा। कहने वाले तो यहां तक कहने लगे कि बंगाल विभाजन से खिन्न होकर भारत ने पहली बार राष्ट्रवाद की राह पकड़ ली। बंदे मातरम… श्लोगन इसी दौर की उपज है। इसको बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास… आनंद मठ से लिया गया था। बाद में रबींद्र नाथ टैगोर ने इसको संगीतबद्ध किया था और देखते ही देखते यह आजादी का प्रमुख श्लोगन बन गया।

बंदे मातरम का असर

बंदे मातरम का असर ये हुआ कि लोग विदेशी कपड़ों की होली जलाने लगे। कलकत्ता, पूना और मद्रास समेत देश के अधिकांश हिस्सों में बंग-भंग के नाम से आंदोलन शुरू हो गया। इस घटना के बाद वर्ष 1910 में पंडित मदन मोहन मालवीय ने बनारस में हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी।

ब्रिटेन में हुआ बड़ा बदलाव

वर्ष 1906 में ब्रिटेन की राजनीति में बड़ा बदलाव आ गया। ब्रिटेन के आम चुनाव में लिबरल पार्टी की जीत हो गई। इसी के साथ भारत को देखने का उनका नजरिया भी बदला। वायसराय लॉर्ड मिंटो और भारत के मंत्री जॉन मोर्ली ने भारत में कई सुधार कानून को लागू करना शुरू कर दिया। इसी दौर में भारत की राजनीति और शासन में भारतीय लोगो को हिस्सेदार बनाया गया। वर्ष 1910 में सुप्रीम काउंसिल में भारतीय लोगो को शामिल कर लिया गया। गोपालकृष्ण गोखले को इसका पहला सदस्य बनाया गया था।

कॉग्रेस में पड़ी फुट

वर्ष 1907 में कांग्रेस में फुट पड़ गया। वह दो फाड़ में बट गई। इसको गरम दल और नरम दल का नाम दिया गया था। नरम दल के लोग सरकार के साथ मिल कर काम करना चाहते थे। जबकि, गरम दल के लोग सरकार के खिलाफ आंदोलन करना चाहते थे। गरम दल में “लाल-पाल और बाल’ की तिकड़ी बहुत प्रचलित हुई थी। लाल… यानी लाला लाजपत राय,  बाल… यानी बाल गंगाधर तिलक और पाल… यानी, विपिन चंद्र पाल। ये तीनो गरम दल की अगुवाई करने लगे थे।

लाला लाजपत राय की मौत

कहतें हैं कि बाल गंगाधर तिलक ने युवा क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस का समर्थन किया था। इसके बाद तिलक को अंग्रेजो ने बर्मा की जेल में बंद कर दिया था। बाद में विपिन चन्द्र पाल और अरविंद घोष ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। पर, तिलक अपने विचारधारा पर डटे रहे। हालांकि, उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन धीरे- धीरे कमजोर पड़ने लगा था। वर्ष 1928 में अंग्रेजो की लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय की मौत के बाद गरम का यह आंदोलन करीब- करीब समाप्त हो गया।

कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट हुआ राजधानी

गरम दल के आंदोलन का दूरगामी असर हुआ। वर्ष 1911 में मिंटो की जगह लॉर्ड हार्डिंग्ज को वायसराय बनाया गया। उन्होंने विभाजित बंगाल को फिर से एक कर दिया। लेकिन, बिहार और ओडिशा को अलग करके एक नया प्रांत बना दिया गया। इसी समय देश की राजधानी को कलकत्ता से उठाकर दिल्ली में शिफ्ट कर दिया गया था। वर्ष 1915 में सुप्रीम कॉउसिंल में मुस्लिम लीग को शामिल कर लिया गया। सिर्फ शामिल नहीं किया। बल्कि, उनके लिए अलग से सीट आरक्षित कर दिया। अंग्रेजों ने ऐसा करके बड़ा ही चालाकी से देश के विभाजन का बीजारोपण कर दिया।

चौथा कालखंड 32 वर्षो का

चौथे और अंतिम कालखंड कहानी वर्ष 1915 से लेकर 1947 तक की है। 32 वर्ष के इस कालखंड को आप महात्मा गांधी का युग भी कह सकते है। पूरा नाम था मोहनदास करमचंद गांधी। लोग उनको बापू कहा करते थे। दक्षिण अफ्रिका से वर्ष 1915 में लौट कर गांधीजी भारत आ गए थे। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने अंग्रेजो के नस्लभेद के खिलाफ अहिंसक आंदोलन का सफल संचालन किया था। भारत लौटने पर यहां के लोग कौतुहल भरी नजरो से उन्हें देखने लगे थे। भारत लौटने पर गोपालकृष्ण गोखले के कहने पर गांधीजी पूरे भारत का दौरा करने और यहां की समाजिक अवस्था को समझने के लिए निकल पड़े थे।

बिहार के चंपारण से शुरू हुआ आंदोलन

गांधीजी ने बिहार के चंपारण में अपना पहला आंदोलन शुरू किया। वर्ष 1919 में अंग्रेजों ने रॉलेट एक्ट लागू कर दिया था। इस कानून के खिलाफ गांधीजी ने पूरे देश में सत्याग्रह शुरू कर दिया। ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत का यह पहला एकजुट आंदोलन कहा जाता है। दूसरी ओर इस आंदोलनों को दबाने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने दमनकारी हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए। अप्रैल 1919 में बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गई। इसमें करीब 400 से अधिक लोग मारे गए थे। हालांकि, यह आंकड़ा इससे अधिक होने का अनुमान है।

जालियावाला बाग हत्याकांड

जलियांवाला बाग हत्याकांड और खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि में 1921 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। फरवरी 1922 में किसानों ने चौरी-चौरा पुलिस थाने में आग लगा दी। इसमें 22 पुलिस वाले मारे गए थे। इसके बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। गांधीजी के इस निर्णय से कुछ लोग भड़क गये और असंतोष का तेजी से उभार होने लगा। इसकी परिणति ये हुआ कि इसी कालखंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जैसी दो परस्पर विरोधी विचारों का संगठन देश में आकार लेने लगा।

पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव

यह वो दौर था जब कांग्रेस पूरी तरह से गांधी जी के प्रभाव में थी। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने 1929 में पूर्ण स्वराज का एक प्रस्ताव पारित किया। इसके बाद 26 जनवरी 1930 को पूरे देश ने स्वतंत्रता दिवस मनाया था। इसी दौर में गांधीजी के सत्याग्रह से अलग हट कर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव और राजगुरू समेत कई अन्य युवाओं ने क्रांति की राह पकड़ ली। क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी का गठन करके अंग्रेजों की नींद उड़ा दी।

सांडर्स की हुई हत्या

क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मौत के लिए अंग्रेज पुलिस अफिसर सांडर्स को जिम्मेदार माना और 17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने सांडर्स की हत्या कर दिया। क्रांतिकारी यही नहीं रूके। बल्कि, बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने 8 अप्रैल 1929 को ब्रिटिश सेंट्रल हॉल में बम फेंक दिया। क्रांतिकारियों ने पर्चे में लिखा था कि उनका मकसद किसी की जान लेना नहीं बल्कि बहरों को आवाज देना था। तेजी से बदल रहे घटनाक्रम में 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस घटना का दूरगामी असर हुआ। अंग्रेजो के खिलाफ लोगों का खून उबाल मारने लगा था।

सविनय अवज्ञा आंदोलन

इधर, गांधी जी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू करके राजनीति की दिशा मोड़ दी। वर्ष 1930 में साबरमती से 240 किमी दूर स्थित दांडी तट तक मार्च शुरू हो गया। इतिहास में इसको दांडी मार्च या सविनय अवज्ञा आंदोलन के नाम से जाना जाता है। गांधीजी इस मार्च के माध्यम से नमक पर टैक्स वसूलने वाले कानून का विरोध कर रहे थे। वर्ष 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बना। इसके तहत प्रांतों को कुद हद तक स्वायत्तता दे दी गई। इसके बाद 1937 में पहला चुनाव हुआ और 11 में से 7 प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बन गई।

विश्वयुद्ध में अंग्रेजो के साथ थी कॉग्रेस

इस बीच 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। कांग्रेस ने युद्ध में अंग्रेजो का साथ देने का निर्णय लिया। कॉग्रेसियों का मानना था कि ऐसा करने से युद्ध के बाद खुश होकर अंग्रेज हमको यानी भारत को आजाद कर देगा। लेकिन कुटिल अंग्रेजों ने बात नहीं मानी। खिन्न होकर कांग्रेस ने प्रांतों की सरकार से इस्तीफा दे दिया। यह वो दौर था जब कॉग्रेस पर गांधीजी की पकड़ ढीली परने लगा था और सुभाषचन्द्र बोस को लोग पसंद करने लगे थे। नजीता,  महात्मा गांधी ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारत छोड़ों ओदोलन शुरू कर दिया।

आजाद हिन्द फौज का हुआ गठन

इस बीच सुभाषचंद्र बोस का कांग्रेस के नेताओं से मतभेद उभरने लगा था। मतभेद इस कदर बढ़ा की उनको कॉग्रेस छोड़ना पड़ गया। कॉग्रेस छोड़ने के बाद सुभाषचन्द्र बोस को नजर बंद कर दिया गया था। हालांकि, वर्ष 1941 में अंग्रेजो को चकमा देकर सुभाचन्द्र बोस अंग्रेजो की कैद से निकल कर जर्मनी के रास्ते सिंगापुर पहुंच गये। वहां उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया और 1944 में इम्फाल और कोहिमा के रास्ते भारत में प्रवेश करने की रणनीति पर काम करने लगे। कुछ हद तक उन्हें कामयाबी भी मिली। पर यह सपना पूरी तरीके से साकार होने से पहले ही सुभाचन्द्र बोस एक विमान हादसा का रहस्यमयी शिकार हो गये।

भारत में नौसेना विद्रोह

वर्ष 1945 में विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था। अंग्रेजों की आर्थिक कमर टूट चुकी थी। भारत के नौसेना में विद्रोह की आहट सुनाई पड़ने लगा था। यानी अब भारत पर अधिक दिनों तक शासन करना अंग्रेजों के लिए आसान नहीं था। नतीजा, अंग्रेजों ने भारत को आजाद करने का मन बना लिया था। इसके लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से विचार विमर्श शुरू हो गया।

भारत को विभाजित कर बना पाकिस्तान

मुस्लिम लीग चाहती थी कि उसे भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधि माना जाए। लेकिन कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं थी। दोनों के बीच मतभेद बढ़ा और आखिरकार देश का विभाजन हो गया। हालांकि, इसके और भी कई कारण थे। लाखों की संख्या में लोगों का पलायन हुआ। हजारों की संख्या में लोग मारे गये। इसके बाद दुनिया के नक्शे पर 14 अगस्त को पाकिस्तान और 15 अगस्त को भारत स्वतंत्र देश बन गया।

This post was published on मई 7, 2024 22:02

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Published by
कौशलेन्‍द्र झा

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