भारत में संसदीय राजनीति की गरिमा अब सवालो के घेरे में है। पूरा देश अपने रहनुमाओं के कारगुजारियों से सकते में है। रहनुमा भी एक दूसरे पर मर्यादा को तार-तार करने के आरोप लगाते रहें हैं। ऐसे में सवाल भी उठने लगा है कि संसदीय मर्यादा को किसने तोड़ा? इस सवाल पर जन मानस भले ही बंटा हो। पर, टूटते मर्यादा से किसी को भी इनकार नहीं है। हालात इस मोड़ पर है कि संसदीय व्यवस्था से आवाम का भरोसा उठने का खतरा भी मंडराने लगा है।
कौन करेगा सुधार
भारत में सात दशक से चली आ रही संसदीय परंपरा की सूढृता को धरासयी करने के लिए जिम्मेवार कौन? बहरहाल, यह सवाल चर्चा का विषय बन चुका है। हालांकि, इसका सबसे दुखद पहलू ये है कि देश का आवाम जाति, धर्म और पार्टी में बट कर, इस सवालो का जवाब तलाशने में लगें हैं। नतीजा, सम्यक निष्कर्ष से हम अक्सर दूर ही छूट जातें हैं और मूल समस्या को ठीक से समझ भी नहीं पाते है। मौजूदा दौर में हममें से अधिकांश लोग इसी को राजनीति भी कहने लगे हैं।
संसदीय प्रणाली का मतलब
दरअसल, भारत दुनिया का सबसे मजबूत संसदीय प्रणाली वाला देश है। संसद में इस देश की तस्वीर ही नही, बल्कि तकदीर भी तय होता है। जहां गरीबी, शिक्षा, रोजगार, आधारभूत संरचना, रक्षा और जन सरोकार की दिशा तय होनी चाहिए थी। वहां बैठ कर पार्टियां अपना एजेंडा चलाने लगी है। विकास और जीडीपी की जगह हमने अपने संसद को चुनाव प्रचार का अखाड़ा बना दिया है। कहतें है कि सांसद, जब राष्ट्रवाद को हाशिये पर रख कर, व्यक्तिवाद को चमकाने में लग जाएं, तो संसदीय प्रणाली की गरिमा पर सवाल उठना लाजमी हो जायेगा।
खतरे में है भविष्य
कहतें हैं कि शेर, वह अल्फाज है, जिसके सहारे कम शब्दो में हम पूरी बात रख देते है। किंतु, हालिया दिनो में संसद के भीतर शेरो-शायरी का जो दौर शुरू हुआ है, वह चौकाने वाला है। आलम यही रहा तो निकट भविष्य में हमें अपने लिए सांसद नहीं, बल्कि, बेहतर शायर चुनना पड़ेगा। सोचिए, तब क्या होगा, जब संसद में जन सरोकार के बदले पप्पी-झप्पी और आंख मटकाने पर चर्चा होने लगे। किसने और किसको बेहतर तरीके से आंख मारा? इस पर मत विभाजन होने लगे। गले पड़ना नियम संगत है कि नहीं? इस पर डिबेट शुरू हो जाये और आवाम इसी को आधार बना कर मतदान भी करने लगे। तब क्या होगा? हकीकत तो ये है कि हम इस रेस का हिस्सा बन चुकें हैं। सवाल ये नहीं है कि गलती किसने की? सवाल ये है कि उनको ऐसी हरकत करने की ताकत किसने दी और सबसे बड़ा सवाल ये कि ऐसी ओछी हरकत के बाद भी, हम कब तक ताली बजा-बजा कर, वाह-वाह करते रहेंगे? सोचिए…, सोचने का वक्त आ गया है।
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