खुदा की राह में खुद को समर्पित कर देने का प्रतीक पाक महीना ‘माह-ए-रमजान’ न सिर्फ रहमतों और बरकतों की बारिश का वकफा है।
इस महीने की विशेषताएं
महीने भर के रोज़े (उपवास) रखना, रात में तरावीह की नमाज़ पढना, क़ुरान तिलावत (पारायण) करना, एतेकाफ़ यानी गांव और लोगों की अभ्युन्नती व कल्याण के लिये अल्लाह से दुआ करते हुये मौन व्रत रखना, ज़कात देना, दान धर्म करना, अल्लाह का शुक्र अदा करना। अल्लाह का शुक्र अदा करते हुये इस महीने के गुज़रने के बाद शव्वाल की पहली तारीख को ईद उल-फ़ित्र मनाते हैं। कुल मिलाकार पुण्य कार्य करने को प्राधान्यता दी जाती है। इसी लिये इस मास को नेकियों और इबादतों का महीना यानी पुण्य और उपासना का महीना माना जाता है।
रमज़ान और कुरान का अवतरण
मुसलमानों के विश्वास के अनुसार इस महीने की 27वीं रात शब-ए-क़द्र को क़ुरान का नुज़ूल यानी अवतरण हुआ था। इसी लिये, इस महीने में क़ुरान ज़्यादा पढना पुण्यकार्य माना जाता है। तरावीह की नमाज़ में महीना भर कुरान का पठन किया जाता है। जिस से क़ुरान पढना न आने वालों को क़ुरान सुनने का अवसर मिल जाता है।
रोज़ा यानी उपवास
रमजान का महीना कभी 29 दिन का तो कभी 30 दिन का होता है। इस महीने में उपवास रखते हैं। उपवास को अरबी में सौम कहा गया है। इसी लिये इस महीने को अरबी में माह-ए-सियाम भी कहते हैं। फ़ारसी में उपवास को रोज़ा कहते हैं। भारत के मुसलिम समुदाय पर फ़ारसी प्रभाव ज़्यादा होने के कारण उपवास को फ़ारसी शब्द ही उपयोग किया जाता है। रोजा में सूर्योदय से पहले सेहरी का प्रचलन है और शाम को सूर्यास्तमय के बाद इफ्तार के साथ रोज़ा खोला जाता है।
रमज़ान और बातें
रमजान को नेकियों का मौसम-ए-बहार कहा गया है। इस महीने में मुस्लमान अल्लाह की इबादत ज्यादा करता है। अल्लाह को संतुष्ट करने के लिए रोजा के अतिरिक्त कुरआन खानी व जकात आदि का प्रचलन रहा है।
यह महीना समाज के गरीब और जरूरतमंद के साथ हमदर्दी का है। इस महीने में रोजादार को इफ्तार कराने वाले के गुनाह माफ हो जाते हैं। पैगम्बर मोहम्मद सल्ल. से आपके किसी सहाबी ने पूछा- अगर हममें से किसी के पास इतनी गुंजाइश न हो क्या करें। तो हज़रात मुहम्मद ने जवाब दिया कि एक खजूर या पानी से ही इफ्तार करा दिया जाए।
यह महीना मुस्तहिक लोगों की मदद करने का महीना है। रमजान के तअल्लुक से हमें बेशुमार हदीसें मिलती हैं और हम पढ़ते और सुनते रहते हैं लेकिन क्या हम इस पर अमल भी करते हैं? ईमानदारी के साथ हम अपना जायजा लें कि क्या वाकई हम लोग मोहताजों और नादार लोगों की वैसी ही मदद करते हैं जैसी करनी चाहिए? सिर्फ सदकए फित्र देकर हम यह समझते हैं कि हमने अपना हक अदा कर दिया है।
अल्लाह की राह में खर्च करना अफज़ल है
जब अल्लाह की राह में देने की बात आती है तो हमें कंजूसी नहीं करना चाहिए। अल्लाह की राह में खर्च करना अफज़ल है। दूसरों के काम आना भी एक इबादत ही है। ज़कात, सदक़ा, फित्रा, खैर, खैरात, ग़रीबों की मदद, दोस्त, अहबाब में जो ज़रुरतमंद हैं उनकी मदद करना ज़रूरी समझा और माना जाता है। अपनी ज़रूरीयात को कम करना और दूसरों की ज़रूरीयात को पूरा करने से खुदा अपने गुनाहों को कम और नेकियों को ज़्यादा कर देता है। मोहम्मद सल्ल ने फरमाया है जो शख्स नमाज के रोजे ईमान और एहतेसाब रखे उसके पिछले सभी गुनाह माफ कर दिए जाएँगे। रोजा हमें जब्ते नफ्स (खुद पर काबू रखने) की तरबियत देता है। हममें परहेजगारी पैदा करता है।
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