बिहार। कहतें है कि रंगीन फिंजाओं से भरा अरमान और निश्छल प्रेम के बीच अंगराई भरती उम्मीदे…। होली अपने इसी परंपरा के रूप में सदियों से जानी जाती है। आपको बतातें चलें कि फाल्गुन मास आरंभ होते ही आम के मंजरों की महक फिजाओं में तैरने लगती है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में होली के माहौल में एक चीज की कमी खलती है। पहले जहां ग्रामीण इलाकों में वसंतपंचमी से ही चहूं ओर ढोल-मंजीरे के साथ होली के पारंपरिक गीत गूंजने लगती थी, वहीं अब गांवों की इस समृद्ध विरासत में फूहड़पन जहर बन कर घुलने लगा है। होली गीत के साथ ढोल-मंजीरे की गूंज गुम होती जा रही है। एक समय था जब फाल्गुन शुरू होते ही टोलियां बनाकर लोग होली के रसभरे गीत गाते थे और सुननेवाले भी होलीमय हो जाते थे। लेकिन अब तो गांव से शहर तक फूहड़ गीत इस पर्व की पहचान बनने लगा हैं।
व्यस्तता भरी ¨जदगी व आधुनिकता के इस युग में लोग अपनी परंपरा व संस्कृति भूलते जा रहे हैं। होली का मतलब सिर्फ रंग लगाने भर से रह गया है। फाल्गुन में होली गायन की परंपरा विलुप्त होती जा रही है। पहले सभी गांव में होली गीत गाई जाती थी, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं है। पूर्व में लोग टोलियों में घूमकर होली के रसभरे पवित्र गीत गाते थे। लेकिन अब चहूंओर सन्नाटा रहता है। सुनाई भी पड़ते है तो अश्लील गीत। होली के नाम पर अब अधिकांश जगहों पर अश्लील भोजपुरी होली गीत सुनाई देने लगा है। इस लोक भाषा को अश्लीलता से परिपूर्ण बना दिया गया है। इसका समाज पर कुप्रभाव पड़ रहा है।
गांव में युवाओं व बुजुर्गों की टोली चौपालों पर ढोल मंजीरे के साथ एक जुट होकर पारंपरिक होली गीत गाया करते थे। संध्या में आरंभ होने वाला ग्रामीणों का गायन देर रात्रि तक चलता था। इस गायन में शामिल लोग दोहे बनाकर एक-दूसरे पर मजाक भी करते थे। बीच-बीच में वाह जी वाह तथा अंत में जोगिरा सारा रा रा कहा जाता था। किंतु, अब यह परंपरा लुप्त होने के कगार पर है।
होली गायन में विभिन्न तर्जों पर विषय वार गायन होता था। जिसमें बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग खेले…, कान्हा के हाथ कनक पिचकारी राधा के हाथ गुलाल…, कान्हा मारे गजब पिचकारी…., कान्हा मार ना ऐसे गुलाल से रंग बरसे राधा के गाल से…, कान्हा मारे गजब पिचकारी की फागुन रंग बरसे और मत मारो बरजोरी रे कान्हा, रंग भरल पिचकारी…, अमुआ जब मंजरे लागल पियवा मोर बहके लागल… आदि गीत गाए जाते थे।