महीनों की पर्दे के पीछे की बातचीत और राजनीतिक जोड़-तोड़ के बाद, महागठबंधन ने आखिरकार 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अपनी सीट-शेयरिंग फार्मूला को अंतिम रूप दे दिया है। यह बैठक रविवार शाम को पटना में हुई और इसे एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा है जो राज्य की विपक्षी राजनीति को फिर से परिभाषित कर सकता है। सूत्रों के अनुसार, यह नया फार्मूला न केवल सत्ता के समीकरण को दिखाता है बल्कि 2020 की हार से मिली सीख को भी दर्शाता है। इस बार गठबंधन का मूल सिद्धांत साफ है – टिकट आवंटन में वरिष्ठता या भावना का नहीं, बल्कि प्रदर्शन और वीनबिलिटी का ध्यान रखा जाएगा।
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RJD की प्रमुखता बनी रहेगी, लेकिन सीटों में कमी
जैसा कि अनुमान था, राष्ट्रीय जनता दल (RJD) महागठबंधन का प्रमुख दल बने रहेगा, लेकिन इस बार उसने अपनी सीटों का हिस्सा घटाने का फैसला किया है। 2020 में जहां RJD ने 144 सीटों पर चुनाव लड़ा था, वहीं अब वह लगभग 130 सीटों पर चुनाव लड़ेगा। सूत्रों का कहना है कि यह कदम तेजस्वी यादव की रणनीति का हिस्सा है, जिसमें RJD को एक समावेशी और गठबंधन के हितों में काम करने वाली ताकत के रूप में पेश किया जा रहा है, ताकि बीजेपी के खिलाफ एक एकजुट मोर्चा खड़ा किया जा सके।
इसके विपरीत, कांग्रेस को सबसे बड़ी कटौती का सामना करना पड़ा है। कांग्रेस का हिस्सा 70 सीटों से घटाकर लगभग 55 सीटें कर दिया गया है। यह निर्णय मुख्य रूप से कांग्रेस की 2020 में खराब प्रदर्शन को ध्यान में रखते हुए लिया गया है, जब उसने 70 सीटों में से केवल 19 सीटें जीती थीं।
बाईज, वामपंथी पार्टियों को मिली बड़ी भूमिका
वामपंथी दलों, खासकर CPI(ML), को इस बार सबसे बड़ा लाभ हुआ है। CPI(ML) जो 2020 में 19 में से 12 सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रही थी, इस बार 25 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेगी। CPI और CPM को क्रमशः लगभग 6 और 4 सीटें मिलेंगी।
इसके अलावा, मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी (VIP), जो इस गठबंधन में नया हिस्सा है, को लगभग 15 सीटें मिल सकती हैं। साथ ही, झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) और राम विलास पासवान के RLJP को भी RJD की सीटों के हिस्से से 5 अतिरिक्त सीटें मिलेंगी।
तेजस्वी यादव अपने गठबंधन सहयोगियों से सीटों के बारे में एक-एक कर चर्चा करेंगे, लेकिन सूत्रों का कहना है कि “सामान्य ढांचा पहले ही तय हो चुका है।”
सीट-शेयरिंग के चार प्रमुख सूत्र
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2020 का चुनावी रिपोर्ट कार्ड
2020 विधानसभा चुनाव के नतीजे इस बार की सीट-शेयरिंग बातचीत में प्रमुख संदर्भ बिंदु बने। कांग्रेस की कम सफल दर, जिसमें 70 में से केवल 19 सीटों पर जीत मिली थी, इसके सीट हिस्से में कमी का कारण बनी। वहीं, CPI(ML) की 63% सफलता दर ने उसे अधिक सीटें दिलवाने में मदद की।
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केवल ‘वीनबिल’ सीटों पर ध्यान
इस बार महागठबंधन ने केवल वीनबिल सीटों पर ही ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया। प्रत्येक सीट का विश्लेषण उसके जाति समीकरण, पिछले प्रदर्शन और उम्मीदवार की ताकत के आधार पर किया गया। कांग्रेस ने पहले आरोप लगाया था कि RJD ने 2020 में उसे कमजोर सीटों पर चुनाव लड़वाया था, जो अब सुधारने की कोशिश की जा रही है।
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लोकसभा 2024 को मापदंड बनाकर सीट आवंटन
2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम को भी एक मापदंड के रूप में इस्तेमाल किया गया। जिन विधायकों ने लोकसभा चुनावों में गठबंधन के उम्मीदवारों को कमजोर वोट दिए थे, उन्हें टिकट मिलने की संभावना नहीं है। सूत्रों के अनुसार, RJD के लगभग 15 से 20 विधायकों को उनकी खराब प्रदर्शन के कारण टिकट नहीं मिलेगा।
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नए गठबंधन सहयोगियों को जगह देना
महागठबंधन में इस बार पांच की जगह सात पार्टियां शामिल हो गई हैं। JMM और RLJP जैसे नए सहयोगियों को जगह देने के लिए RJD और कांग्रेस ने कुछ सीटें छोड़ दी हैं। गठबंधन के अंदर एक साझा समझ यह है कि “लक्ष्य बीजेपी के खिलाफ है, न कि आपस में झगड़ा।”
कांग्रेस की कठिन स्थिति
कांग्रेस, हालांकि, इस फैसले से पूरी तरह संतुष्ट नहीं दिखती। पार्टी के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि 70 से घटाकर 55 सीटों तक आने का फैसला “दुखद लेकिन जरूरी” था। राहुल गांधी की टीम ने बिहार यूनिट को फिर से ढंग से खड़ा करने के लिए राजेश राम को राज्य अध्यक्ष और कृष्णा अल्लवारू को प्रभारी नियुक्त किया है, ताकि लालू प्रसाद यादव का प्रभाव कम किया जा सके।
सूत्रों का कहना है कि पार्टी ने एक अंदरूनी सर्वेक्षण के आधार पर अपने सीट हिस्से का दावा किया। कांग्रेस के अनुसार, 2020 में 19 सीटें जीतने के अलावा, 12 सीटें 10,000 से कम वोटों के अंतर से हारी थीं, और 13 सीटें 10,000 से 20,000 वोटों के अंतर से हार गई थीं। इसका मतलब कांग्रेस का “वास्तविक दावा” 44 से 60 सीटों के बीच था।
RJD का बदलता रुख: शाहबुद्दीन पर चुप्पी से ‘अमर रहे’ तक का सफर
RJD ने मुस्लिम-यादव समीकरण में बदलाव किया है। लोकसभा चुनावों के दौरान शाहबुद्दीन परिवार से दूरी बनाने के बाद अब RJD ने उनके साथ फिर से संपर्क साधने की कोशिश की है। तेजस्वी यादव का नया नारा “शाहबुद्दीन अमर रहे” इस बदलाव को दर्शाता है। सूत्रों का कहना है कि अब ओसामा शाहब, जो शाहबुद्दीन के बेटे हैं, को सीवान से चुनावी मैदान में उतारा जा सकता है।
साथ ही, RJD ने उन 15 से 20 विधायकों को बाहर करने का फैसला किया है जिन्होंने लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया।
वामपंथी दलों का दक्षिण बिहार में विस्तार
CPI(ML), जिसने हाल के लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया है, अब दक्षिण बिहार में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए काम कर रही है। पार्टी का मुख्य आधार पहले से ही भोजपुर, सीवान और अरवल जैसे क्षेत्रों में मजबूत था, लेकिन अब वह काईमुर, गया, और औरंगाबाद जैसे इलाकों में भी अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है।
महागठबंधन का ध्यान EBC वोटों पर
महागठबंधन ने अपनी 2025 की चुनावी रणनीति में अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) को अपना मुख्य आधार बनाया है। बिहार की लगभग 36% आबादी EBC से आती है और यह वर्ग पहले से ही नीतीश कुमार का समर्थक रहा है। राहुल गांधी ने “EBC न्याय प्रस्ताव” में हिस्सा लिया और OBC समुदाय से सार्वजनिक रूप से माफी मांगी, जो इस वर्ग को जीतने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
कानूनी मामलों को लेकर असमंजस और “प्लान B”
कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र इस बात को लेकर चिंतित हैं कि Lalu Prasad Yadav, Rabri Devi और तेजस्वी यादव के खिलाफ चल रहे “जमीन के बदले नौकरी” मामले का असर चुनावों पर पड़ सकता है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “अगर RJD नेतृत्व चुनावों के दौरान कानूनी समस्याओं में फंसता है, तो यह नेतृत्व संकट पैदा कर सकता है। हमें ‘प्लान B’ तैयार रखना होगा।”
लालू प्रसाद यादव की भूमिका: अंतिम बाधा का समाधान
RJD और कांग्रेस के बीच सीटों को लेकर बातचीत एक समय पर अटक गई थी। छह सीटों को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ था, लेकिन राहुल गांधी के फोन के बाद, लालू प्रसाद यादव ने सीधे हस्तक्षेप किया और इन सीटों को कांग्रेस को सौंपने का सुझाव दिया, जिससे अंतिम बाधा दूर हो गई।
बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। महागठबंधन की सीट-शेयरिंग फार्मूला एक मिश्रण है जो विचारशीलता, सत्ता के वितरण और राजनीतिक दूरदृष्टि को दर्शाता है। यह फार्मूला 2020 के पाठ, 2024 की वास्तविकताओं और 2025 की महत्वाकांक्षाओं को जोड़ता है। अब यह देखना होगा कि यह एकता बीजेपी के आक्रामक चुनाव प्रचार और महागठबंधन के अंदर के मतभेदों का सामना कर पाती है या नहीं। चुनाव परिणाम आने तक यह सवाल बना रहेगा कि महागठबंधन की यह योजना कितनी सफल होती है।
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