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पश्चिम यूपी में दाव पर है साख

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बढ़त लेने की जुगत में समीकरण का खेल

न्यूज ब्यूरो। दिल्ली की सत्ता पाने के लिए उत्तर प्रदेश से होकर गुजरना पड़ता है। मतलब साफ है। दिल्ली चाहिए तो यूपी फतह करना होगा। इन्हीं कारणो से 2022 का यूपी चुनाव सत्ता का सेमी फाइनल माना जा रहा है। लोगो में यूपी चुनाव को लेकर जबरदस्त दिलचस्पी है। ऐसा माना जाता है कि यूपी की सियासी समां में जाठलैंड पर सभी की नजर है। जाठलैंड, यानी पश्चिम उत्तर प्रदेश। वर्ष 2013 के मुजफ्फरनगर दंगा की वजह से वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में वहां बीजेपी को बढ़त मिल गई। इसके बाद बीजेपी ने पूरे यूपी में भगवा लहरा दिया। इस बार सपा इसी काम में लगी है।

किसान आंदोलन का असर

पश्चिम यूपी में किसान आंदोलन का सर्वाधिक असर है। तीन कृषि कानून वापिस लेने के बाद भी किसानो में सरकार के प्रति गुस्सा बरकरार है। राजनीति की दुनिया में इसको अंडरकरेंट कहा जाता है। यह कई बार बैक फायर भी करता है। हालांकि, अभी यह तय होना बाकी है कि पश्चिम यूपी की राजनीति में क्या होगा? कहने का मतलब ये कि खेला होगा या ध्रुवीकरण… ? सबसे पहले आपको बतादें कि पश्चिमी यूपी में 14 जिला है और इसमें विधानसभा की करीब 100 सीटें है। इसमें से 71 सीटो पर जाट मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। किसान आंदोलन के बाद इन्हीं 71 सीटो पर सभी की नजर टीक गई है। क्योंकि, इस 71 में से 51 सीट पर इस वक्त बीजेपी का कब्जा है। जाहिर है बीजेपी के लिए वर्ष 2022 के चुनाव में अपने पुराने प्रदर्शन को बरकरार रखने की जबरदस्त चुनौती होगी। दूसरी ओर किसान आंदोलन की आर लेकर इस इलाके से सपा की जबरदस्त उम्मीदें टीकी है। बसपा, कॉग्रेस और असदउद्दीन ओवैसी भी इस इलाके में पसीना बहा रहें हैं।

जातीय समीकरण

पश्चिम यूपी के जातीय समीकरण को समझ लेना जरुरी हो जाता है। जातीय गणित की बात की जाए तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानो की आबादी सबसे अधिक यानी करीब 32 फ़ीसदी है। जबकि, वहां 18 फीसदी दलित वोटर्स है। असदउद्दीन ओवैसी इसी को आधार बना कर अपने लिए राजनीति की जमीन तैयार करने में लगे है। दूसरी ओर करीब 12 फीसदी जाट और करीब 30 फीसदी ओबीसी मतदाता हैं। जो, खेला कर सकते है। जाटलैंड में अधिकांश मतदाता किसान है और खेती, हमेशा से यहां का मुद्दा रहा है। इन्हीं कारणो से तीन कृषि कानून को लेकर पश्चिम यूपी की राजनीति में गरमाहट बरकरार है। हालांकि, केन्द्र की सरकार ने तीनो कृषि कानून को वापिस ले लिया है। बावजूद इसके किसानो में गुस्सा है। बताया जा रहा है कि एमएसपी को कानूनी दर्जा नहीं मिलने से वहां के किसानो में असंतोष है। किसानो के इसी असंतोष को आधार बना कर सपा ने पश्चिम यूपी फतह करने के लिए कई मोर्चा खोल दिया है।

रालोद का गढ़

पश्चिमी यूपी की 14 जिलों की 71 विधानसभा सीटों पर किसानों का दबदबा है। इसमें जाट, मुसलमान और गूजर समुदाय के अधिकांश लोग रहते हैं। किसान आंदोलन का सबसे अधिक प्रभाव इसी इलाका में देखा गया था। किसान आंदोलन के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक, राकेश टिकैत, इसी इलाके से आते हैं। एक जमाना था जब इस इलाके में राष्ट्रीय लोकदल की तूती बोलती थी और जाट समुदाय के अधिकांश लोग इसी पार्टी को वोट देते थे। लेकिन 2017 में उसे सिर्फ एक सीट मिली। जो बाद में भाजपा में शामिल हो गए। वर्ष 2017 में समाजवादी पार्टी को 16, कांग्रेस को 2 और बसपा को जाटलैंड की मात्र एक सीट पर कामयाबी मिली थीं। मौजूदा समय में सपा ने रालोद के साथ गठबंधन बना कर जाटलैंड फतह करने की तैयारी कर ली है। रालोद के सबसे बड़े नेता जयंत चौधरी इसी रणनीति के तहत जाटलैंड फतह करने की कोशिश में जुट गए है। सवाल उठता है कि कृषि क़ानून पर मोदी सरकार के यू-टर्न के बाद समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन कितना कारगर साबित होगा? बीजेपी के रणनीतिकार इस गठबंधन को बहुत धारदार नहीं मानतें हैं। उनका मानना है कि इससे पहले वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी दोनों दल एक साथ चुनाव लड़ चुकें है। राष्ट्रीय लोकदल ने वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया था। तब वह बीजेपी के साथ मिल कर चुनाव लड़े थे और उन्होंने 14 सीटें जीतीं थी। इसके बाद 2007 में आरएलडी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया और 10 सीटों पर उनके उम्मीदवार जीते थे। वर्ष 2012 का चुनाव आरएलडी ने कांग्रेस के साथ लड़ा और 9 सीटो पर जीत हासिल की। तब आरएलडी के नेता चौधरी अजित सिंह हुआ करतें थे। उनके निधन के बाद उनके पुत्र जयंत चौधरी ने पार्टी का कमान सम्भाला और जयंत चौधरी का यह पहला विधानसभा चुनाव है। जयंद चौधरी के दादाजी और पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह इसी इलाके से ताल्लुक रखते थे।

मुजफ्फरनगर दंगा

वर्ष 2013 में मुजफ्फरनगर दंगा हुआ था और इसी दंगा के बाद पश्चिम यूपी की राजनीति ने करबट बदलनी शुरू कर दी। पश्चिम यूपी के मतदाता ध्रुवीकरण की राह पकड़ ली। वर्ष 2019 तक इसी ध्रुवीकरण का बीजेपी को भरपुर लाभ मिला। किंतु, किसान आंदोलन के बीच ध्रुवीकरण की राजनीति धूमिल होने लगा है। यही है पॉलिटिकल क्रॉनोलॉजी। यहीं वह बड़ी वजह है। जिसके रहते सभी की नजर पश्चिम यूपी पर टीक गई है। इतना तो तय है कि जिसको पश्चिम यूपी में बढ़त मिल जायेगा। उसके लिए आगे की राह आसान हो जायेगा। यानी तस्वीर साफ है। तस्वीर ये कि पश्चिम यूपी में ध्रुवीकरण की राजनीति बरकरार रह गया तो बीजेपी की बढ़त को रोक पाना बिपक्ष के लिए मुश्किल हो जायेगा। किंतु, यदि किसान आंदोलन का अंडरकरेंट मतदान होने तक बरकरार रह गया तो सपा की गठबंधन को इस इलाके में बढ़त मिलना तय है। इस बीच एक पेंच और भी है। वह ये कि मुसलमान असदउद्दीन ओबैसी के कहने पर बंट गए और दलित वोट में भी सेंधमारी हो गई तो समीकरण एक बार फिर से नया मोड़ ले सकता है।


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