बात वर्ष 1984 की है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लोगो का आक्रोश उफान पर था और पूरे देश में सिख विरोधी हिंसा होने लगी थी। भीड़ ने तीन रोज के भीतर ही देश भर के करीब चार हजार सिखों की हत्या कर दी। इनमें आधे से अधिक हत्या देश की राजधानी दिल्ली में हुई थीं। बतातें चलें कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की गोली मार कर हत्या करने वाला उन्हीं का सुरक्षाकर्मी था और वह सिख था। लिहाजा, लोगो का गुस्सा सिखों के खिलाफ भड़क गया था। उस वक्त इसे मॉब लिंचिंग भले नहीं कहा गया। किंतु, आजाद भारत की राजनीति में भीड़ तंत्र या यूं कहें कि नफरत की राजनीति यहीं से शुरू होती है।
प्रधानमंऋी ने दिए खतरनाक बयान
इंदिराजी की मौत के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बने और उनहोंने एक बयान दे दिया। इसमें कहा गया कि जब कोई बड़ा पेंड़ गिरता है, तो धरती थोड़ी काप जाती है। इस बयान ने आग में घी का काम किया और इसके मायने तलाशे जाने लगें। नतीजा ये हुआ कि 31 अक्तूबर, 1984 की शाम होते-होते दिल्ली सहित देश की अधिकांश शहरो में सुरक्षाकर्मी अपने मांद में समा गए और सड़को पर दंगाइयों ने कब्जा करके कानून को खुलेआम अपने हाथो का खिलौना बना दिया। पुलिसकर्मी यह मानकर चल रहे थे कि अगर उन्होंने कड़ी कार्रवाई की, तो उन्हें सजा मिलेगी और चुप रहने पर इनाम मिलेगा। फिर क्या था, चंद घंटों में ही देश के इतिहास का सबसे शर्मनाक अध्याय लिखा जा चुका था।
34 साल बाद
सिख विरोधी दंगा के तकरीबन साढ़े तीन दशक बाद दो घटनाओं का जिक्र करना लाजमी है। पहला फिल्म पद्मावत को लेकर भड़की हिंसा और दूसरा दलित आरक्षण को लेकर भड़की हिंसा। भीड़ तांडव करती रही और पुलिस मुंह फेरे खड़ी रही। हिंसा कर रहे लोग खुलेआम कानून की धज्जिया उड़ाते रहे संविधान और न्यायपालिका को गलियाते रहे। पर, वोट के खातिर विवश भारतीय राजनीति के सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगो को न कुछ दिखाई पड़ा और नाहीं कुछ सुनाई ही पड़ा। हरियाणा में एक जगह स्कूल बस पर उपद्रवियों के पथराव और सीटों के नीचे छिपकर जान बचाते बच्चों की वायरल हुई तस्वीरों ने पूरे देश को झकझोर डाला। पर, नेताओं पर इसका भी कोई असर नहीं पड़ा।
नफरत की राजनीति का आधार वोट बैंक
हिंसा चाहें सिख विरोधी हो फिल्म पद्मावत की हो या आरक्षण समर्थको की हो। ऐसे हिंसा में पुलिस की निष्क्रियता के पीछे का यह अदृश्य इशारा आता कहां से है? आम लोगो के मन में यह सवाल अब चुभन बनता जा रहा है। जैसा की हम बता चुकें हैं कि इंदिराजी की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था, बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती कांपती है। हालांकि, हम यह नहीं मानते कि सिखों के कत्लेआम के पीछे उनकी सहमति थी। लेकिन दूरदर्शन पर वह वाक्य बोलता हुआ चेहरा कहीं न कहीं इसी ओर इशारा कर रहा था। जिससे दिल्ली पुलिस के जवानों की ऊपर उल्लिखित समझ निर्मित हुई थी। शायद इसी को देहभाषा कहते हैं। इसी प्रकार हालिया दिनो हुई हिंसा के दौरान हमारे रहनुमाओं ने अपने बयानो से जो संकेत दिए, पुलिस के अधिकारी ने उसे संकेत समझ कर हिंसा पर काबू करने की जगह उसे चुपचाप भड़कते देखना अधिक मुनासिब समझा।
मिशाल और भी हैं
बात सिर्फ सिख विरोधी दंगा या आरक्षण समर्थको की दंगा तक सीमित नहीं है। बल्कि, हरियाणा में पिछले दिनों जो घटनाएं घटीं और जाट आंदोलन के दौरान सड़कों पर जिस तरह से संपत्ति का नुकसान हुआ और महिलाएं खुलेआम हवस की शिकार बनती रही। इसे सिर्फ राज्य की नालायकी का कहना उचित नहीं होगा। बल्कि, यह सभी कुछ वोट बैंक के समक्ष घुटने टेंकती प्रजातंत्र का ज्वलंत मिशाल कहा जा सकता है। इसी तरह, डेरा सच्चा सौदा आश्रम मामले में भी साफ दिखा कि शुरुआती दौर में हिंसक भीड़ को रोकने की इच्छाशक्ति सिरे से नदारद क्यों थी?
भारत की राजनीति में खतरे का संकेत
रिपोर्ट का लब्बोलुआब यह है कि वर्ष 1984 में आरंभ हुआ भीड़ तंत्र का इंसाफ कालांतर में बिकराल रूप धारण करता चला गया और वोट बैंक वाली भारत की राजनीति अपने नफा-नुकसान का आकलन करने में ही लगी रह गई। ऐसे में आजादी के सात दशक बाद भी जो वोट बैंक नहीं बन पाये, उनका डरना स्वभाविक है। आज हमारे रहनुमा खुलेआम जातीय सोच को उजागर करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं। बल्कि, ऐसा करने मात्र से उनका जनाधार भी बढ़ता है। आलम यही रहा तो इस देश में भीड़तंत्र कभी भी प्रजातंत्र पर हावी हो सकती है और यह भविष्य के लिए खतरे का बड़ा संकेत है।
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