तारीख 10 अगस्त 2020… सुबह के 10 बजे तक। भारत में 6 लाख से अधिक लोग कोविड-19 यानी कोरोना वायरस की चपेट में है और करीब 44 हजार से अधिक लोगो की मौत हो चुकीं है। जीहां, 44,386 लोगो की मौत…। क्या यह आंकड़ा भी महज एक अफवाह है…? क्या यह मीडिया के द्वारा फैलाई गई दहशत की परिणति है…? ऐसे और भी कई सवाल है, जो कोरोनाकाल की मौजू बन गई है और इसको डीकोड करना आज जरुरी हो गया है।
बिहार के गांवो में ज्ञान का स्वांग भरने का फितुर रखने वाले लोग कोरोनाकाल की सबसे बड़ी समस्या बन चुुकें हैं। इनमें से कई ऐसे है, जो इस खतरे को मीडिया की मायाजाल साबित करने में लगें है। ऐसे भी है, जिनको वैश्विक महामारी कोरोना में भी आसानी से राजनीति दीख जाता है। महारथ ऐसा कि पल भर में ही नाना प्रकार के कुतर्को का खजाना खोल देने की माद्दा रखते है। सोशल साइट पर एक कुतर्की दूसरे कुतर्की के हवाले से अपनी बातो की पुष्टि कर लेता हैं। मजाल नहीं, कि कोई इन्हें समझा ले।
गांव का आलम ये हो गया है कि बड़ी संख्या में भोलीमानस भी अब इन्हीं कुतर्को को सच का आधार मान कर, खुद को खतरे में डाल रहा है। नतीजा, गांव की स्थिति विस्फोटक रूप लेने लगा है। खतरे की बात ये कि शहर पर लोगो की नजर है। पर, आज भी गांव ओझल है। हालिया दिनो में गुमनाम मौत का सिलसिला गांव में चल पड़ा है। अब इसकी तस्दिक कौन करेगा? लोगो पर तो पर्दा डालने का फितुर सवार है। मन पसंद खबर नहीं मिले तो, मीडिया के बिकाउ कहने का फितुर सवार है और समझाने की कोशिश करने पर, विरोधी समझने का फितुर सवार है।
इसे अनजाने में की गई गलती कहेंगे या गुमराह मानसिकता? जाहिर है, ये अनजान नहीं है। बल्कि, इनको गुमराह किया गया है। ऐसे में सवाल उठना लाजमी हो जाता है कि वो कौन है… जो, गुमराह करता है? जवाब तलाशने से पहले, समझना बेहद जरुरी है कि- ऐसे लोग मुख्य रूप से तीन प्रकार के होतें हैं। पहला ओ… जो, किताबी ज्ञान में पारंगत होने के बाद भी, खुद गुमराह है। खुद के ज्ञान का स्वांग भरने के अतिरिक्त वह कुछ और समझने को तैयार नहीं है। उसकी बातो को पुष्टि करने वाले लेख के अतिरिक्त वह कुछ और पढ़ने को तैयार नहीं है। वह, समझने के लिए नहीं… बल्कि, समझाने के लिए धरती पर खुद को मौजूद पातेे है। अक्सर ऐसे लोग भिन्न विचारधारा वाले लोगो को अपना वैचारिक दुश्मन समझते हैं और हर बात में व्यंग करना, इनकी फितरत हो जाता है।
दूसरे प्रकार के लोग खुद गुमराह नहीं होते। पर, राजनीतिक या समाजिक नफा-नुकसान की चासनी में तथ्यों को मरोड़ देना, इनकी फितरत में शूमार हो जाता है। ऐसे लोग वक्त के साथ अपने तर्को को बदलने की कला भी रखते हैं। इनको समाज पर पड़ने वाले असर का नहीं… बल्कि, खुद को मिलने वाले लाभ का, लोभ अधिक होता है। तीसरे प्रकार वाले वो है, जो मुख्यधारा से विमुख रहने की फोबिया से ग्रसित होतें हैं। ऐसे लोगो की समझ में विरोध करना ही ज्ञान का एकमात्र लक्षण होता है। इस विचारधारा के लोग राजनीति में हासिए पर होते है और अपनी विफलता का ठिकरा अक्सर प्रचार माध्यम के सिर फोड़ते हैं। गौरकरने वाली बात ये है कि इस प्रजाती के प्राणी पूरी दुनिया में मौजूद है। ऐसे लोगो के रहते कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से निपटना आसान नहीं होगा। विशेषकर ग्रामीण समाज में, यदि खतरा प्रवल हो जाये तो आश्चर्य नहीं होगा। लिहाजा, सतर्क रहिए, सुरक्षित रहिए…।
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