KKN न्यूज ब्यूरो। दुनिया में मौजूद रासायनिक हथियार या जैविक हथियार, मनुष्य के लिए कितना बड़ा खतरा है? कोरोना काल के बीच आज यह सवाल मौजू बन चुका है। दरअसल, कोरोना वायरस से दुनिया में मची तबाही के बीच जैबिक हथियार से होने वाली दर्दनाक मौत की कल्पना मात्र से सिहरन होने लगता है। ऐसे में आपको यह जान कर बेहद हैरानी होगी कि विज्ञान की मदद से चोरी-छिपे ऐसे कई खतरनाक वायरस को लैव में विकसित किया हुआ है। ताकि, शत्रु देश को तबाह किया जा सके। हालांकि, मानवता को नष्ट करने वाली जैविक हथियार के खतरो का अंदाजा होते ही दुनिया सतर्क हो गई और जैविक हथियार के निर्माण को प्रतिबंधित कर दिया गया।
सबसे पहले जानते है कि रासायनिक युद्ध होता क्या है? दरअसल, रासायनिक युद्ध में रासायनिक पदार्थों के विषैले गुणों का उपयोग करके बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि की जाती है। रासायनिक युद्ध, वास्तव में परमाणु युद्ध या नाभिकीय युद्ध से बिल्कुल अलग होता है। सामान्य भाषा में कहे तो नाभिकीय युद्ध के दौरान संहार की एक सीमा होती है। जबकि, जैविक विधि से लड़े गये युद्ध में महासंहार की कोई सीमा नहीं होती। यह कई बार हमलावर देश को भी अपने चपेट में ले लेता है। मिशाल के तौर पर आप कोरोना वायरस को देख सकतें है। हालांकि, यह एक वायोलॉजिकल वेपन है? इसकी अभी पुष्टि नहीं हुई है।
अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी के एक सीनेटर टाम कॉटन के एक इंटरव्यू पर गौर कर लेना यहा जरुरी हो गया है। कॉटन ने फॉक्स टीवी को दिए एक इंटरव्यू में कोरोना वायरस को चीन का जैविक हथियार बता कर, दुनिया में एक बड़ा बहस खड़ा कर दिया है। कॉटन ने कहा है कि फिलहाल हमारे पास इसके पुख्ता सबूत नहीं है। लेकिन वुहान के फूड मार्केट से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर चीन की बायोसेफ्टी सुपर लेब्रोटरी मौजूद है। कॉटन ने जोर देकर कहा कि हमें इसकी तह में जाना ही होगा। कॉटन का इशारा साफ है। कॉटन के इस स्टेटमेंट के बाद अमेरिका सहित दुनिया के कई देशो में इस पर जोरदार चर्चा शुरू हो गई है।
हम में से बहुत कम लोगो को पता है कि अमेरिका इससे पहले भी एक बार जैविक हमला झेल चुका है। इसमें हजारो लोगो की जाने गई थीं। गौर करने वाली बात ये है कि अमेरिका के लोग आज भी इसको भूले नहीं है। आपको जान कर हैरानी होगी कि अमेरिका पर यह जैविक हमला उस वक्त ब्रिटेन ने किया था। यह बात करीब ढाई सौ साल पुरानी है। दरअसल, अमेरिका के लोग उन दिनो ब्रिटेन से अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। कहतें है कि आजादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को कुचलने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने जैविक हथियार का सहारा लिया था। हालांकि, आजतक इसकी अधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है।
एक समय था, जब भारत की तरह अमेरिका भी ब्रिटेन का गुलाम था। हालांकि, 4 जुलाई 1776 को अमेरिका आजाद हो गया था। लेकिन इस आजादी के लिए अमेरिका को लम्बे समय तक सशस्त्र संघर्ष करना पड़ा था। बात वर्ष 1763 की है। अमेरिकी स्वतंत्रता सेनानियों ने फ्रांस की मदद से अंग्रेज के अति महत्वपूर्ण ओहायो राज्य के पिट सैनिक छावनी पर कब्जा कर लिया था। किंतु, अचानक ही अमेरिकी स्वतंत्रता सेनानी स्मॉल पॉक्स यानी चेचक की चपेट में आ गए और उनकी तड़प तड़प कर मौत होने लगी। देखते ही देखते यह बीमारी ओहायो और ग्रेट लेक्स तक फैल गया और हजारो लोग मौत के मुंह में समा गये। कालांतर में चेचक की यह बीमारी पूरी दुनिया में फैलती चली गई। लाखो लोग मर गये। हालांकि, इसका टीका बन जाने के बाद चेचक पर अब एक हद तक विराम लग चुका है। किंतु, 18वीं सदी में यह बीमारी, कोरोना की तरह ही दुनिया के लिए एक अनबूझ पहेली बना हुआ था। बाद में खुलासा हुआ कि यह ब्रिटेन द्वारा प्रायोजित जैविक हमला था। ब्रिटिश अधिकारी जनरल बैरन जेफरी और कर्नल हेनरी बुकेट के बीच हुए पत्राचार से इसका खुलासा हुआ था। वैज्ञानिको ने इस पर रीसर्च भी किया था। रीसर्च करने वाले डॉ. सेथ कारुस के मुताबिक यह बीमारी प्राकृतिक नहीं था। यानी इसको वायोलॉजिकल लैव में बनाया गया था। यहीं वह पृष्टभूमि है, जो कोरोना वायरस को लेकर चिन्ता बढ़ा रही है।
बहरहाल, मुझे नहीं पता है कि कोरोना वायरस एक वायोलॉजिकल वेपन है या नही? जाहिर है इसका पता चलने में वर्षो लग सकता है। कारण ये कि वायोलॉजिकल वेपन पर अन्तराष्ट्रीय प्रतिबंध है और कोई भी देश खुलेआम इस जोखिम को उठाने की जुर्रत नहीं करेगा। इसको समझने के लिए वर्ष 1993 के केमिकल वेपन कॉन्वेशन के द्वारा पारित प्रस्ताव पर एक नजर डालना जरुरी हो गया है। दरअसल, इस कॉन्वेशन के दौरान केमिकल और जैविक हथियारों के उत्पादन, भंडारण या इसके इस्तेमाल पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया है। अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत इस नियम को मानना सभी देशो के लिए अनिवार्य कर दिया गया है। इस समझौते पर दुनिया के 192 देशो का हस्ताक्षर है। आपको जान कर हैरानी होगी कि जिस वक्त यह समझौता हुआ था, उस वक्त दुनिया के कई देशो के पास करीब 72 हजार 525 मिट्रिक टन जैविक हथियार मौजूद था। यानी इंसान को बीमार करने वाला कीड़ा, जो हमने ही बना कर रखा हुआ है। हालांकि, समझौते के बाद जून 2016 तक इसमें से 66 हजार 368 मिट्रिक टन जैविक हथियार को विभिन्न देशो ने नष्ट कर दिया है। हालांकि, कतिपय कारणो से आज भी 6 हजार 157 मिट्रिक टन जैविक हथियार का मौजूद रहना, मानव के स्तित्व के लिए परमाणु बम से भी ज्यादे खतरनाक है। एक बात और जो समझ लेना यहां जरुरी है। वह ये कि नॉर्थ कोरिया ने इस समझौता पर हस्ताक्षर नहीं किया हुआ है। नतीजा, नॉर्थ कोरिया में वायोलॉजिकल वेपन निर्माण का काम आज भी जारी है। ऐसा माना जा रहा है कि नार्थ कोरिया के पास पर्याप्त मात्रा में जैविक हथियारों का भंडार है। ऐसा कहा जा रहा है कि वर्ष 1970 से पहले ही नॉर्थ कोरिया ने रासायनिक हथियार बनाने के लिए जरूरी टर्बुन और मस्टर्ड गैस हासिल कर ली थी। इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप ने साल 2009 में ही अंदेशा जताया था कि नॉर्थ कोरिया के पास करीब 5 हजार मिट्रिक टन के आसपास वायोलॉजिकल वेपन का जखीरा हो सकता है। कहतें है कि जिन देशो के पास आज भी जैविक और रसायनिक हथियार मौजूद हो सकता है। उनमें, अमेरिका, रूस, इराक, जापान, ब्रिटेन और चीन का नाम लिया जाता है। हालांकि, अन्तराष्ट्रीय प्रतिबंध की वजह से इसमें से कोई भी देश खुलेआम वायोलॉजिकल वेपन होने की पुष्टि नहीं करता है।
बात भारत की कर लेते है। दरअसल, भारत की सरकार ने 14 जनवरी 1993 को आधिकारिक तौर पर कैमिकल वेपनकंट्री समझौते पर हस्ताक्षर किया था। हस्ताक्षर करने के बाद जून 1997 में 1 हजार 44 मिट्रिक टन सल्फर मस्टर्ड के भंडार की घोषणा की और भारत ने इसे साल 2006 तक करीब 75 फीसदी कैमिकल मैटिरियल को पूरी इमानदारी से नष्ट कर दिया था। जबकि, बाकी बचे वायोलॉजिकल वेपन को भारत ने बाद में नष्ट कर दिया और 14 मई 2009 को भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इस बात का ऐलान किया कि अब उसके पास यानी भारत के पास कैमिकल हथियार का कोई भंडार मौजूद नहीं है।
इस समय पूरी दुनिया में चर्चा है कि चीन की सरकार अपने लैव में बड़े पैमाने पर जैविक हथियार को विकसित करने में जुटा हुआ है। अब सच क्या है और झूठ क्या है? मुझे नहीं पता। पर दबी जुवान से पूरी दुनिया में इस बात पर बहस छिरी हुई है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कोरोना वायरस भी चीन के उसी प्रयास की परिणति है। दरअसल, जैविक हमला के पीछे कि यह स्याह सच्चाई है कि जो भी देश इसका इस्तेमाल करता है, वह बाद में मुकर जाता है। कालांतर में इसका पुख्ता प्रमाण जुटा पाना किसी भी देश के लिए आसान नही होता है। लिहाजा, आने वाले दिनो में दुनिया के बीच एक बार फिर से जैविक हथियार बनाने की होड़ शुरू हो जाये, तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। क्योंकि, मौजूदा दौर में जैविक हथियार का शत्रू पर प्रयोग करना सबसे आसान और सुरक्षित तरिका बन चुका है। हो सकता है कि कालांतर में कतिपय आतंकी संगठन भी इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगे।
जिस विज्ञान पर हम सभी को गरूर है और होना भी चाहिए। दरअसल, उसी विज्ञान ने जितनी दवा नहीं बनाई। उससे बहुत अधिक विषाणु और वायरस बना दिय। यदि भूलवश या प्रतिशोध में किसी ने कभी इसका इस्तेमाल कर दिया तो पूरी मानव जाति का अस्तित्व खत्म हो जायेगा और इसी के साथ विज्ञान की तमाम आविष्कार भी धरी की धरी रह जायेगी। परमाणु की खोज भी इसी कड़ी का हिस्सा है। सोचिए, कभी किसी सनकी ने इसका इस्तेमाल कर दिया तो विज्ञान के अन्य सभी खोज के नष्ट होने में कितना देर लगेगा? अब कोरोना वायरस को ही ले लीजिए। क्या लगता है कि यह अप्रैल तक खत्म हो जायेगा और हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा? हो जाये तो अच्छा है। पर, आपको मालुम तो चल ही गया होगा कि चीन में इसका दूसरा फेज सिर उठाने लगा है। बड़ा सवाल ये कि दुनिया के अन्य देशो में भी इसी तरह से दूसरा फेज शुरू होने लगा तो, क्या होगा? चलिए मान लेते है कि कुछ नहीं होगा। पर, जो अभी हो रहा है? यानी लॉकडाउन, सोशल डिस्टेंसिंग और आइसोलेशन। यही कम है क्या…?
दरअसल, दुनिया में पिछले तीन-चार महीनों से कोरोना वायरस के कहर की खबरें लगातार बनी हुई हैं। ऐसे में कई तरह के विचार और तथ्य भी सामने आने लगा हैं। जब हमने आंकड़ो का अध्ययन किया तो खुलाशा चौकाने वाला था। हमने जीवन के लिए विज्ञान का जितना इस्तेमाल किया है। उससे कई गुणा अधिक विज्ञान का इस्तेमाल जीवन को नष्ट करने के लिए किया है। इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट यानी सिपरी की रिपोर्ट की मानें तो बीते वर्ष 2018 में विभिन्न देशो की रक्षा सौदे पर हमने एक हजार 822 अरब डॉलर यानी एक हजार 352 खरब रुपये से भी ज़्यादा खर्च किये है। यह आंकड़ा दुनिया की जीडीपी का करीब 4 प्रतिशत है। यह वह राशि है, जिससे हमने जीवन को नष्ट करने के उपकरण बनायें है। इसमें गैर कानूनी हथियार निर्माण के करीब 60 अरब डॉलर का कारोबार शामिल नहीं है। जबकि, जीवन को बचाने के लिए हमने अपने जीडीपी के एक प्रतिशत का चौथा हिस्सा भी खर्च करना मुनासिब नहीं समझा। दरअसल, इसको ठीक से समझने के लिए डब्ल्यूएचओ के आंकड़ो पर गौर करना यहा जरुरी हो गया है। डब्लूएचओ की माने तो उच्च आय वाले विकसित देशों में चिकित्सा विज्ञान के रिसर्च पर उनके कुल जीडीपी का 0.19 फीसदी खर्च होता है। जबकि निम्न आय वाले देश अपने जीडीपी का मात्र 0.01 फीसदी ही खर्च कर पाते है। यानी हम अपने जीडीपी के एक प्रतिशत का दशवां हिस्सा भी जीवन की रक्षा करने पर खर्च करने को तैयार नहीं है। परिणाम, आपके सामने है। कोरोना वायरस से लड़ने के लिए आज हमारे पास संसाधन नहीं है। जबकि, जीडीपी के 4 प्रतिशत से अधिक की राशि जीवन को नष्ट करने पर खर्च करतें है। जाहिर है यही हाल रहा तो हर बार कोराना काल में हमे असहाय होकर मौत की आगोस में जाना ही पड़ेगा। इसके अतिरिक्त विज्ञान ने हमे सिर्फ हथियार जनित हिंसा ही नहीं दिये। बल्कि, विज्ञान की मदद से हमने पार्यावरण को भी अत्यधिक नुकसान पहुंचा कर जीवन को खतरे में डाल दिया है। अब इसका असर भी दिखने लगा है। पैदावार के नाम पर हमने खाद्य पदार्थों को विषैला बना दिया है। तमाम तरह के दुष्प्रभावों को देखा जाए तो विज्ञान की मदद से हमने खुद ही अपने विनाश की पूरी तानाबाना बून लिया है। ऐसे में कोरोना वायरस तो महज एक बानगी है। आगे, इससे भी बड़े खतरो से सामना हो जाये तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा।
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