लंबे समय तक सुनी जायेगी परिणाम की गूंज
KKN न्यूज ब्यूरो। दिल्ली विधानसभा चुनाव केवल एक क्षेत्रीय चुनाव नहीं है, बल्कि इसका राजनीतिक प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर भी महसूस किया गया है। यह चुनाव भारतीय राजनीति की दिशा और दशा को तय करने वाला माना गया है, जहां राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दों का अनूठा मिश्रण देखने को मिला। दिल्ली, जो देश की राजधानी है, राजनीतिक दलों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई का मैदान बन गई थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम की गूंज, भारतीय राजनीति में लंबे समय से सुनी जायेगी। हालांकि, बिहार विधानसभा चुनाव पर इसका कितना असर पड़ेगा, यह देखना अभी बाकी है।
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क्षेत्रीय दल बनाम राष्ट्रीय दल
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच सीधी टक्कर देखी गया है। कांग्रेस, जो कभी दिल्ली की सत्ता पर काबिज थी, और पिछले एक दशक से सत्ता के लिए संघर्ष कर रही है। फिलहाल उसका अंत होता दीख नहीं रहा है। चुनाव परिणाम के बाद कॉग्रेस, आत्ममंथन करेगी इसकी उम्मीद नहीं है। कॉग्रेस अपने बेजा हमलावर नीति पर पुर्नविचार करेगी, इसकी उम्मीद भी नहीं है। इस चुनाव में यह देखना अहम है कि राष्ट्रीय दलों के सामने अब क्षेत्रीय दल अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए कौन सी रणनीति अख्तियार करती है।
आप की बात करें तो उसने अपनी राजनीति को शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सेवाओं के मुद्दों पर केंद्रित किया। पर, कामयाब नहीं हो सकी। दूसरी ओर, भाजपा राष्ट्रीय मुद्दों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व पर भरोसा करके बाजी पलटने में कामयाब हो गई। इससे यह स्पष्ट होने लगा है कि क्षेत्रीय मुद्दा, राष्ट्रीय मुद्दा के सामने बौना साबित होने लगा है।
मतदाता वर्ग और ध्रुवीकरण
दिल्ली का मतदाता वर्ग विविध है। इसमें शहरी मध्यम वर्ग, झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लोग, व्यापारियों और युवा मतदाताओं की प्रमुख भूमिका है। यहां तक कि प्रवासी श्रमिक भी इस समीकरण का हिस्सा हैं।
भाजपा अक्सर अपने कोर वोट बैंक पर निर्भर रहती है, जबकि ‘आप’ ने खुद को जनता के मुद्दों से जोड़कर एक नई पहचान बनाई थी। कांग्रेस, जो कभी हर वर्ग के मतदाताओं को अपनी ओर खींचती थी, अब इस दौड़ में पिछड़ती नजर आ रही है। यह चुनाव यह भी दिखालाता है कि देश की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के मतदाता क्या सोचते है। देश की बदलती राजनीतिक समीकरण और विकास की आर में मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति ने देश में अपनी अलग पहचान बना लिया है। दिल्ली से निकला संदेश, इसकी तस्दिक कर रहा है।
चुनावी रणनीतियां और तकनीक का महत्व
2020 के चुनाव में देखा गया कि आप ने जमीनी स्तर पर मजबूत नेटवर्क तैयार किया और सोशल मीडिया को प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया। भाजपा ने भी आक्रामक प्रचार किया, लेकिन उसे वांछित परिणाम नहीं मिले। इस बार, सभी दल डिजिटल प्रचार, डेटा एनालिटिक्स और जमीनी कार्यकर्ताओं की शक्ति को लेकर नई रणनीतियां बनाई। सभी ने कारगर तरीके से इस पर काम किया। पर, बीजेपी की जन संपर्क प्रबंधन, बाकी पर भारी पड़ गया।
आप की मुफ्त बिजली, पानी और महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा जैसी योजनाएं मतदाताओं को लुभाने के लिए एक मजबूत आधार नहीं बन सकी। वहीं, भाजपा ‘डबल इंजन सरकार’ के एजेंडे के तहत दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार के बीच बेहतर समन्वय का वादा करके, अपने अभियान में सफल हो गई।
राष्ट्रीय प्रभाव
दिल्ली का चुनाव राष्ट्रीय राजनीति पर असर डालता है। भाजपा की जीत से केंद्र सरकार की नीतियों और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता में समर्थन का एक और सितारा जुड़ गया है। दूसरी ओर, ‘आप’ की पराजय में भी कई संदेश छिपा है। अव्वल तो इससे विपक्षी एकता प्रभावित होगी। क्षेत्रीय दलों की घटते ताकत का भी, यह चुनाव एक संकेत माना जायेगा। यह चुनाव यह भी दर्शाता है कि कांग्रेस अपने पुनरुद्धार के प्रति आशातीत गंभीर नहीं है। कॉग्रेस के रणनीतिकारों को इस पर नए सिरे से विचार करना होगा। कॉग्रेस को ब्लेमगेम से बाहर निकल कर, रचनात्मक रणनीति पर काम करना होगा। अन्यथा, हाशिये पर सिमटने वाली कॉग्रेस, अब नेपथ्य की दस्ताबेज बन सकती है।
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