कौशलेन्द्र झा
प्रत्येक क्रिया के बराबर व विपरित प्रतिक्रिया होती है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य नही, बल्कि समाजिक हकीकत भी है। कहतें हैं कि जब कभी भी किसी खास मूल्यों को अधिक तबज्जो मिलने लगे तो दुसरा मूल्य खुद को उपेक्षित महसूस करने लगता है और कालांतर में वह भी उभरने का प्रयास करता है।
मिशाल के तौर पर आप 20वीं सदी की आरंभिक दशको पर गौर फरमाएं। अंग्रेजी हुक्कमरानो के द्वारा यूरोप की समृद्धि हेतु, भारतवंशियों का दमन अपने चरम पर था। नतीजा, कुनवाई भतभेदो को भूला कर भारतवंशियों ने एकता की ओर करबट बदली और 15 अगस्त 1947 को इसकी परिणति सबके सामने थी। इसके बाद उच्चमध्य वर्ग सत्तासीन हुआ और पिछड़ा वर्ग, खुद को उपेक्षित महसूस करने लगा। परिणाम एक बार फिर से सामने आया 90 के दशक में, जब पिछड़ो की गोलबंदी हुई और उच्चमध्य वर्ग को सत्ता से बेदखल होना पड़ा।
किंतु, इस दौर की रहनुमाओं ने एक बड़ी भूल कर दी। धार्मिक सहिष्णुता के नाम पर की जाने वाली तुष्टीकरण, एक रोज धार्मिक उन्माद का रुप ले लेगा, इसका किसी को अनुमान नही था। दरअसल, 90 के दशक में ही इस उन्माद का भी बीजारोपण हो चुका था। बावजूद इसके हमारे देश के तात्कालीन रहनुमा, इस बड़े खतरे को भांप नही सके और 21वीं सदी की शुरूआती दशको में ही हमारा समाज एक और गोलबंदी की दौर से गुजरने लगा। जिसे धार्मिक गोलबंदी कहा जाता है। ये वो है, जो धार्मिक सहिष्णुता की आर में लम्बे समय तक अपनी उपेक्षा का दंश झेलने को विवश रहे और इनकी किसी ने नही सुनी। चालू दशक, इस गोलबंदी की जबरदस्त परिणति का गवाह बना और राष्ट्रीय राजनीति से लेकर प्रांतीय राजनीति तक में भूचाल आ गया।
दरअसल, कट्टरवाद किसी भी समस्या का समाधान नही है। प्रतिक्रिया स्वरूप होने वाली राजनीतिक बदलाव से वर्ग विशेष को लाभ मिल सकता है और मिला भी है। किंतु, राष्ट्रीय लाभ हेतु सत्ता के न्याय पर सभी का समान रुप से भरोसा होना लाजमी है। वर्ग विशेष को अपमानित करके समरस समाज की कल्पना करना, बेइमानी होगा। हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम दूसरो को अपमानित करके, खुद का सम्मान चाहतें हैं। बहरहाल, जब तक सभी समाज, धर्म व जाति के स्वयंभू ठेकेदार खुद को संयमित नही कर लेते, तब तक समाज में प्रतिक्रिया स्वरूप होने वाले बदलाव की दौर के थमने की उम्मीद करना कोरी कल्पना नही, तो और क्या है?