भारतरत्न, बाबा साहेब डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर…। जीहां, जितना लम्बा नाम, उतनी बड़ी ख्याती। दरअसल, बाबा सहेब अपने कालखंड के महान विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समजा सुधारक के रूप में जाने जाते हैं। वह भारतीय संविधान के शिल्पकार और आजाद भारत के प्रथम कानून मंत्री रह चुके हैं। उन्होंने न सिर्फ दलित बल्कि, समाज के कमजोर वर्ग, श्रमिक वर्ग और महिलाओं के अधिकार के लिए जीवन प्रर्यन्त संघर्ष किया। उन्होंने घार्मिक आधार पर भारत के विभाजन का पुरजोर बिरोध किया और जम्मू कश्मीर के लिए बने धारा 370 को देश के लिए घातक बताया था। कानून मंत्री रहते हुए उन्होंने हिंदू कोड बिल के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियो को दूर करने का भरसक प्रयास किया। अंबेडकर को भारत में समान नागरिक संहिता के बहुत बड़े पैरोकार माना जाता है। वह भारत को आधुनिक, वैज्ञानिक सोच और तर्कसंगत विचारों का देश बनाना चाहते थे। वह अक्सर अपने भाषणो में कहते थे कि आजाद भारत में किसी भी वर्ग या धर्म के आधार पर पर्सनल कानून की जगह नहीं होनी चाहिए। इस बात को उन्होंने अपने कई पुस्तक में जिक्र किया है।
KKN न्यूज ब्यूरो। बाबा साहेब का मूल नाम भीमराव सकपाल था। उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल था। उनके पिता महू में अंग्रेज फौज के मेजर सूबेदार के पद पर तैनात हुआ करते थे। वर्ष 1891 में 14 अप्रैल के दिन जब रामजी सूबेदार अपनी ड्यूटी पर थे, उसी वक्त दिन के ठीक 12 बजे माता भीमाबाई की कोख से भीमराव का जन्म हुआ। अंबेडकर, अपने माता-पिता के सबसे छोटे संतान थे। पिता कबीर पंथी हुआ करते थे। जबकि, उनकी माता धर्म परायण महिला थीं। माता की गोद में बालक का आरंभिक काल बेहद ही अनुशासन में बीता। बालक भीमराव की प्राथमिक शिक्षा दापोली और सतारा में हुआ। महार जाति के होने के कारण उन दिनो की व्यवस्था में स्कूली पढ़ाई के दौरान उन्हें कई बार अपमानित होना पड़ता था।
भीमराव सकपाल, भीमराव आंबेडकर कैसे बन गये? यह एक बड़ा ही दिलचस्प वाकाया है। दरअसल, उनके पिता रामजी सकपाल ने प्रारंभिक शिक्षा के लिए भीमराव का स्कूल में एडमिशन करा दिया। भीमराव बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे और उनके इसी प्रतिभा से प्रभावित होकर स्कूल के एक ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर ने उन्हें अपना उपनाम इस्तेमाल करने की इजाजत दे दी। स्कूल के रजिस्टर पर भी उनके नाम के साथ भीमराव आंबेदकर दर्ज कर दिया गया। इसी नाम से आज पूरी दुनिया उन्हें जानती है। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद वे मुबंई चले गये और एल. फिनस्टोन स्कूल से उन्होंने 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। इस अवसर पर विद्यालय में एक अभिनंदन समारोह का आयोजित किया गया था। समारोह के दौरान ही उनके शिक्षक कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर ने उन्हें भेंट स्वरुप बुद्ध चरित्र नामक एक पुस्तक उपहार में दी थी। कहतें है कि किशोर उम्र अंबेडकर पर इस पुस्तक का इतना गहरा असर हुआ कि कालांतर में उन्होंने वर्ष 1956 में बौद्ध धर्म अपना लिया।
अंबेडकर आगे की शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे। इसके लिए उनके पास प्रयाप्त पैसा नही था। जब इस बात की जानकारी बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड को मिली तो उन्होंने अंबेडकर को फेलोशिप देने की घोषणा कर दी। स्मरण रहें कि स्वयं बड़ौदा नरेश ब्राह्मण जाति के थे और बहुप्रचारित मिथक महज एक मिथक है। फेलोशिप पाकर भीमराव ने 1912 में मुबई विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा पास की। आंबेडकर उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना चाहते थे। बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ ने आंबेडकर की पढ़ाई जारी रखने के लिए दूबारा फेलोशिप देने की घोषणा कर दी। राशि मिलते ही आंबेडकर ने अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। उन्होंने वर्ष 1915 में एम.ए. की परीक्षा पास की। इस दौरान उन्होंने अपना शोधपत्र ‘प्राचीन भारत का वाणिज्य’ लिखा था। बाद में उन्होंने ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकेन्द्रीकरण नामक अपना दूसरा शोधपत्र भी तैयार किया। इसी शोघ के आधार पर वर्ष 1916 में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय से उन्हें पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई थी।
अंबेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पोलिटिकल सांइस में एम.एस.सी. और डी.एस.सी. की परीक्षा उतीर्ण की और विधि संस्थान में बार-एट-लॉ की उपाधि हेतु स्वयं को पंजीकृत करके भारत लौट आये। इसके बाद कुछ समय के लिए बडौदा नरेश के दरबार में सैनिक अधिकारी तथा वित्तीय सलाहकार का दायित्व स्वीकार किया। वर्ष 1919 में डॉ. अम्बेडकर ने राजनीतिक सुधार हेतु गठित ‘साउथ बरो आयोग’ के समक्ष राजनीति में दलित प्रतिनिधित्व के पक्ष में कई साक्ष्य रखे। उन्होंने ‘मूक नायक’ और ‘बहिष्कृत भारत’ जैसी साप्ताहिक पत्रिकाएं निकाली और स्वयं इसका संपादन किया। कुछ दिनो के बाद आंबेडकर अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिए एक बार फिर से लंदन चले गये। वहां से बैरिस्टर की उपाधी प्राप्त की। उन्हीं दिनो बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर को कोलंबिया विश्वविद्यालय ने एल.एल.डी. और उस्मानिया विश्वविद्यालय ने डीलीट की मानद उपाधियों से सम्मानित किया था। आपको बतातें चलें कि बाबा साहेब ने अपने जीवन काल में कुल 26 उपाधियां अर्जित की। वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारतरत्न से सम्मानित किया गया था।
गुलाम भारत में उन्होंने जल प्रबंधन तथा विकास और नैसर्गिक संसाधनों को देश की सेवा में सार्थक रुप से प्रयुक्त करने का ब्रटिश हुकूमत को सुझाव दिया था। आजादी के बाद संविधान तथा राष्ट्र निर्माण में उन्होंने समता, समानता, बन्धुता एवं मानवता आधारित भारतीय संविधान की रचना की। संविधान की रचना में बाबा साहेब को 2 वर्ष 11 महीने और 17 दिन का समय लगा था। भारत के पहले कानून मंत्री रहते हुए उन्होंने वर्ष 1951 में महिला सशक्तिकरण और हिन्दू संहिता विधेयक पारित करवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किंतु, इस बिल के प्रावधानो को लेकर राजनीतिक मतभेद उत्पन्न होने के बाद उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।
वर्ष 1906 में बाबा साहेब की पहली शादी 15 वर्ष की उम्र में रमावाई के साथ हुई। पहली पत्नी से उनके पांच संतान हुए। किंतु लम्बी बीमारी के बाद वर्ष 1935 में रमावाई का निधन हो गया। पत्नी की निधन के बाद से बाबा साहेब अकेला महसूस करने लगे थे। इसी दौरान 40 के दशक के उत्तराद्ध में बाबा साहेब बीमार रहने लगे। उन्हें नींद नही आने की बीमारी हो गई थी। पैरो में न्यूरोपेन होने लगा था। कालांतर में वे डायबिटज और बल्डप्रेसर के शिकार हो गये। मुबंई में इलाज के दौरान ही उनकी मुलाकात डॉ. सबिता बाई से हो गई। डॉ. सबिता पुणे के चितपावन ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थी। इलाज के दौरान ही बाबा साहेब की सबिता से नजदिकी बढ़ने लगा था। उम्र में काफी छोटी होने के बावजूद 15 अप्रैल 1948 को दोनो विवाह के बंधन में बंध गए और 6 दिसंबर 1956 को बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की मृत्यु होने तक सबिता बाई उन्हीं के साथ रही। अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘द बुद्धा एण्ड हिज धर्मा’ में लिखा है कि सबिता ने किस प्रकार से उनकी सेवा की। बाद में 94 वर्ष की उम्र में वर्ष 2003 में सबिता बाई का निधन हो गया। सबिता बाई ने बाबा साहेब के व्यक्तित्व पर दो पुस्तक लिखी और जीवन प्रर्यन्त दलित आंदोलन से जुड़ी रही।
अंबेडकर के सपूर्ण व्यक्तित्व को समझने के लिए बौद्ध धर्म को ग्रहण करते हुए उनके द्वारा ली गई संकल्प को समझना आवश्यक है। बतातें चलें कि अपने निधन से कुछ ही महीने पहले उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। बौद्ध धर्म को अपनाते हुए बाबा साहेब ने अपने समर्थको के साथ कुल 22 संकल्प लिए थे। इसमें उन्होंने कहा था कि मैं किसी देवी या देवता को कभी ईश्वर नहीं मानूंगा और नाही मैं उनकी कभी पूजा करूंगा। अवतार और पुर्नजन्म में विश्वास नही करूंगा। कर्मकांड का पालन नही करूंगा और समाज में व्याप्त उच-नीच को समाप्त करने का यत्न करूंगा। मैं सभी इंसान को एक समान मानूंगा और समानता की स्थापना का यत्न करूंगा। मैं बुद्ध के आष्टांग मार्ग और दस परिमिताओं का पूरी तरह पालन करूंगा। मैं अपने जीवन को बुद्ध धम्म के तीनो तत्व अथार्त प्रज्ञा, शील और करुणा पर खुद को ढालने का यत्न करूंगा। मैं प्राणी मात्र पर दया रखूंगा और उनका लालन-पालन करूंगा। मैं चोरी नहीं करूंगा, झूठ नहीं बोलूंगा, व्याभिचार नहीं करूंगा और शराब नहीं पीऊंगा…।
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