संतोष कुमार गुप्ता
वह तोड़ती पत्थर,
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर.
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
सुर्यकांत त्रिपाठी निराला के तोडती पत्थर कविता को मुस्तफागंज बाजार पर मध्य प्रदेश के घूमंतू जाति के महिलाओ ने सच्च साबित कर दिया है। मप्र के विदिशा जिले के सिरौने गांव से आने वाले इन परिवारो की हालत सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। सरकारी सुविधाओ से मरहूम धर्मेंद्र लोहार का परिवार दर दर भटकने को विवश है। धर्मेंद्र लोहार भले ही आर्थिक तंगी व परिवार के समस्याओ के चलते दर दर भटक रहा हो। किंतु इसके कलाकृति के लोग कायल है। धर्मेंद्र पुरा देश भ्रमण करते हुए मुस्तफागंज बाजार पर डेरा डाला है। वह लोहे को तोड़ कर किसानो के लिए यंत्र बनाता है। जहां एक ओर जिलास्तरीय किसान मेले मे स्टॉल पर बड़े बड़े कम्पनी मक्खी मार रहे थे। ठीक उसी समय मुस्तफागंज बाजार के फुटपाथ पर इनके द्वारा तैयार यंत्र खरीदने को मारामारी थी।
पांच बजे सुबह से शाम सात बजे तक हथौड़ा थामती है हीना
मप्र विदिशा के धर्मेंद्र सुबह चार बजे बिछावन छोड़ देता है। वह सुबह मे ही आग की भट्टी तैयार करता है। पांच बजे से उसकी पत्नी हीना बाई घन(बड़ा वाला हथौड़ा) थाम लेती है। दिन मे एक घंटे के मध्यांतर को छोड़ दे तो वह शाम सात बजे तक हथौड़ा चलाती रहती है.वह भट्टी पर तपकर भी गोद का बच्चा अजय दो साल को आंचल मे समेट कर दूध पिलाकर पेट की ज्वाला को शांत करती है.उसका बखूबी साथ उसकी देवरानी कमलाबाई निभाती है। वह चूड़ी वाले नरम कलाई से पसीना बहाकर किसानो के काम आने वाले यंत्र को तैयार करती है। हीना के जेठानी बजरी बाई के फटाफट हथौड़ा चलाने के अंदाज को देख कर दंग रह जायेंगे आप। हालांकि उसको इस बात का कसक है कि आर्थिक तंगी के कारण उसने कुछ वर्ष पूर्व पति को खो दिया है। तीन बच्चो की चिंता हमेशा सताती रहती है। धर्मेंद्र अपना पुरा परिवार लेकर रविवार की शाम मुस्तफागंज बाजार पर पहुंचा है। दस लोग है टीम मे.कोई आग की भट्टी पर तपता है,तो कोई हथौड़ा चलाता है। तो कोई तैयार समान को बेचता है। धूप,ठंड और बारिश मे भी खुले आसमान के नीचे काम करना पड़ता है।
बाजार से कम दाम पर मिलते है खुबसूरत यंत्र
जहां बाजार मे लोहे का तैयार यंत्र चार सौ रूपये किलो मिलता है.वही ये लोग महज दो सौ रूपये किलो खुबसूरत यंत्र बेचते है.हसिया,फसूल,दबिया,हथौड़ा,छेनी,सुम्मा,वसूली,व अन्य यंत्रो को कुछ मिनट मे ही तैयार कर देता है।बिक्री भी खूब हो रही है।इस काम मे धर्मेंद्र के भाई शेर सिंह लोहार व कपिल लोहार भी सहयोग करते है.किंतु धर्मेंद्र को मलाल है कि महगांई के इस दौर मे इतनी मेहनत के बाद भी बड़ी मुश्किल से दाल रोटी का दाम निकल पाता है।
नही मिला सरकारी कोई सुविधा
धर्मेंद्र का परिवार छह माह तक देश के विभिन्न जगहो पर रूक कर परम्पारिक यंत्र तैयार कर बेचता है। छह माह घर पर ही बीतता है.विदिशा मे सरकारी जमीन मे फूस का घर है.सरकारी सुविधा कुछ नही मिला। राशन व किरासन भी नही.खाने से पैसा नही बचता है कि वह बच्चो को पढाये.इतने पैसे नही की जमीन खरीद कर घर बनाये। बस अपना पेशा को आगे बढा रहे है।
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