हममें से बहुत कम लोग है, जिनको मालुम होगा कि एक इंसान अपने जीवनकाल में करीब 60 करोड़ 48 लाख रुपये का ऑक्सीजन लेता है। यह ऑक्सीजन कुदरत से हमें मुफ्त में मिलता है। बावजूद इसके कुदरत के प्रति आभारी होने की जगह, हमने खुद ही कुदरत का दोहन किया। अंधाधुंध पेंड़ो की कटाई की। यानी खुद से अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारी। आज समझ में आया कि हमारे पूर्वज पेड़ों की पूजा क्यों करते थे? जिसे हम रुढ़ीवादी मानसिकता की संज्ञा देकर नकार रहें है। दरअसल, उसके पीछे छिपी पेड़ो की संरक्षणवादी व्यवस्था को हम समझ नहीं सके। नतीजा, हम सभी ने इसका दुष्परिणाम झेला है। समय आ गया है, जब पेड़ो की महत्ता को एक बार फिर से पुनर्स्थापित करना होगा।