बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव 2025 से पहले राजनीतिक माहौल एक बार फिर तनावपूर्ण होता जा रहा है। हाल ही में संपन्न हुआ विधानसभा का अंतिम मानसून सत्र अहम निर्णयों की जगह व्यक्तिगत हमलों, जातीय टिप्पणियों और अभद्र भाषा का अखाड़ा बन गया। तलवारें नहीं चलीं, लेकिन नेताओं की जुबान से निकले कटु शब्दों ने वैसा ही जख्म दे दिया, जिसे लम्बे समय तक याद किया जाएगा।
Article Contents
अब जब चुनाव समीप है, तो यह सवाल उठना लाजमी है—क्या बिहार की यह जंग अब तक के सबसे कटु राजनीतिक संघर्षों में एक होगी?
सदन में संवाद नहीं, संघर्ष की झलक
बिहार विधानसभा का यह आखिरी सत्र लोकतंत्र के मंदिर की मर्यादा को झकझोरने वाला साबित हुआ। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर तीखा हमला बोला। नीतीश कुमार ने भी जवाब देने में कोई कोताही नहीं बरती। अन्य दलों के नेताओं ने भी मंच का इस्तेमाल अपने राजनीतिक कौशल दिखाने के लिए किया। किसी ने अपमानजनक भाषा में वार किया तो किसी ने परिवार पर तंज कस दिया।
शराबबंदी, शिक्षा, रोजगार और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दे सदन में उठे ज़रूर, लेकिन उन पर सार्थक चर्चा के बजाय शोर और तकरार ने बाज़ी मार ली। ऐसा लगा मानो सदन की कार्यवाही नहीं, बल्कि कोई मल्लयुद्ध चल रहा हो, जिसमें पक्ष-विपक्ष आमने-सामने है।
इस सत्र से स्पष्ट हो गया कि सियासी भाषा अब संयम के दायरे को लांघ चुकी है। सोशल मीडिया पर इन बहसों और वार-प्रतिवार का वीडियो क्लिप खूब वायरल हुआ, जिसमें लोकतंत्र की गरिमा तो कहीं नज़र ही नहीं आई।
क्या यह चुनाव मुद्दों से नहीं, जातियों से तय होगा?
अब जब चुनाव निकट है, जातीय समीकरणों की राजनीति फिर से पटरी पर लौटती दिख रही है। जनता की नज़र में विकास, भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था के मुद्दे पहले होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा। पार्टियां जातीय मतदाताओं को साधने में जुटी हैं।
यह देखा गया है कि OBC, EBC, दलित या अल्पसंख्यक समुदाय के नाम पर नेताओं को सहानुभूति नहीं, बल्कि वोटों का गणित ज़्यादा चिंता दे रहा है। जातीय गोलबंदी का फार्मूला हर चुनाव में दोहराया जाता रहा है। यही कारण है कि आज भी कई नेता जाति कार्ड की प्रैक्टिस में जुटे हैं।
सबकी जुबान से वादे बरस रहे हैं, लेकिन ज़मीन पर सच्चे बदलाव की पहल नदारद है। ऐसे में सवाल उठता है—क्या समाजिक समरसता केवल भाषणों की बातें बन कर रह जाएगी?
नौकरी, सुरक्षा और भ्रष्टाचार: मुद्दे फिर हाशिए पर
जहां एक ओर युवा रोजगार के सपने संजोए बैठे हैं, वहीं दूसरी ओर जनमानस कानून-व्यवस्था और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की उम्मीद कर रहा है। लेकिन इन मुद्दों पर बात करने के बजाय चुनावी चर्चा जाति आधारित वादों पर सिमटती जा रही है।
नेताओं के पास भाषणों में लिए वादों की लंबी फेहरिस्त है, लेकिन योजनाएं ज़मीन पर उतरती नहीं दिख रहीं। सत्ता पाने की लड़ाई में वादा बनाम वास्तविकता का फासला लगातार बढ़ता जा रहा है। आखिरकार, नुक़सान आम जनता को ही भुगतना पड़ता है।
सामाजिक ताने-बाने पर संकट
बिहार की राजनीति में जिस तरह आपसी सम्मान और भाषा की गरिमा टूट रही है, उससे सोशल मिज़ाज पर भी असर पड़ा है। सोशल मीडिया पर नफरत और अफवाहों की बाढ़ देखी जा रही है। धर्म और जाति के चश्मे से एक-दूसरे को देखा जाना अब आम हो चला है।
अगर ऐसी प्रवृत्तियों पर लगाम नहीं लगी, तो केवल चुनाव नहीं, सामाजिक ढांचा भी टूट जाएगा। एक स्वस्थ लोकतंत्र का निर्माण केवल चुनाव जीतने से नहीं होता, बल्कि, लोगों के बीच भरोसे और समझ के निर्माण से होता है।
क्या इस बार जनता अपनी भूमिका बदलेगी?
इस बार चुनाव नेता बनाम नेता नहीं, बल्कि गठबंधन बनाम जनता की उम्मीदों की लड़ाई हो सकती है। मतदाताओं के पास एक नया अवसर है—वोट के ज़रिये तय करने का कि वे जुमलों पर विश्वास करेंगे या हकीकत पर।
याद रखें, अगर आपने सोशल मीडिया के प्रोपेगेंडा और WhatsApp फ्रॉवर्ड्स पर भरोसा कर लिया, तो बिहार इतिहास दोहराएगा। लेकिन अगर आपने समझदारी से, सटीक जानकारी के आधार पर निर्णय लिया, तो बदलाव के रास्ते खुलेंगे।
नेता तो चाल चलेंगे, लेकिन जनता को होना होगा सतर्क
राजनीतिक दल हर बार रणनीति बदलते हैं, लेकिन उनका मकसद एक ही होता है—मतदाता के मन को प्रभावित करना। चुनाव के समय मतदाता ही असली निर्णायक होता है। यदि जनता, भावनाओं और जातीय नफरत से ऊपर उठकर वोट दे तो कोई भी सियासी चाल ज्यादा दिन नहीं चलेगी।
इसलिए बेहद जरूरी है कि मतदाता सशक्त, सजग और सूझ-बूझ वाला हो। तभी राजनीति का असली उद्देश्य—जन सेवा—पूर्ण हो सकेगा।
वोट से न बदलें सत्ता, बिहार की दिशा बदलें
यह चुनाव केवल एक सरकार चुनने का अवसर नहीं, बल्कि एक सोच चुनने का मौका है। सवाल यह नहीं कि कौन मुख्यमंत्री होगा, बल्कि यह है कि हम किन मानकों पर वोट देंगे? क्या हम जाति, धर्म और भावनाओं के आधार पर वोट करेंगे या विकास, रोजगार और व्यवस्था पर?
आने वाला विधानसभा चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि बिहार की राजनीतिक परिपक्वता का आकलन होगा। अगर मतदाता सचेत होकर सही फैसला करता है, तो 2025 का ये चुनाव बिहार के भविष्य के लिए परिवर्तनकारी बन सकता है।
अतः जब गर्मी तेज हो और राजनीतिक भाषाएं और तेज़—तब ठंडे दिमाग से फैसला करना ही सच्चे लोकतंत्र की पहचान है। बिहार का भविष्य किसी दल या नेता से नहीं, आपके एक वोट से तय होगा।
अब निर्णय आपका है—क्या आप नफरत को जिता कर अपने प्रदेश को पीछे ले जाना चाहेंगे, या उम्मीदों को वोट देकर इसे आगे बढ़ाना चाहेंगे?
Discover more from KKN Live
Subscribe to get the latest posts sent to your email.