Politics

हिमाचल की सियासत में समाजिक समीकरण

हिमाचल प्रदेश। हिमाचल प्रदेश की राजनीति में हमेशा से राजपूतो का ही दबदबा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि यहां के राजपूत कुल जनसंख्या का 37.5 फीसदी के करीब प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। ब्राह्मण इस फेहरिस्त में 18 प्रतिशत हैं। वही, अनुसूचित जाति 26.5 फीसदी हैं। गद्दियों की संख्या डेढ़ फीसदी के करीब है। बाकी में अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व हैं।
कहतें हैं कि हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक के रियासतकाल में भी राजपूत राजा ही रहे हैं। रियासत के चंगुल से निकलने के बाद 24 अप्रैल, 1952 को डा. यशवंत सिंह परमार ने हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री की शपथ ली। इसके बाद लगातार चार मर्तबा यानी 27 जनवरी, 1977 तक वह मुख्यमंत्री पद पर आसीन रहे। इस फेहरिस्त में महज 22 जून, 1977 को और पांच अप्रैल, 1990 को शांता कुमार ने दो बार मुख्यमंत्री का पदभार संभाला। वह ब्राह्मण जाति से हैं।

अभी तक प्रदेश की सत्ता में 16 मुख्यमंत्री रहे हैं। इनमें से शांता कुमार ही अकेले ब्राह्मण नेता हैं, जिन्हें दो बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। वरना, इस हॉट चेयर पर राजपूतों का ही दबदबा रहा है। प्रदेश की राजनीति पर गौर करें तो यहां जातिगत समीकरण बड़े दलों को भाते रहे हैं। इसके पीछे कारण भी हैं। बड़े नेताओं की सोच यह रहती है कि राजपूत या ब्राह्मण बाहुल क्षेत्रों में संबंधित जाति के नेता को उतारने में वोट बैंक आकर्षित होता है।
हिमाचल की राजनीति के जानकारों के मुताबिक 1977 के बाद से ही जातिगत समीकरण के मुताबिक ही पार्टियां टिकट देती रही है। यही वजह है कि ज्यादातर राजपूत बाहुल क्षेत्रों में इसी जाति के नेताओं को जहां टिकट मिलते रहे। वर्ष 1952 से 1977 तक चार चुनाव हुए। हालांकि, इनमें जातिवाद आधारित नेताओं का चयन टिकट के लिए नहीं दिखा।
हिमाचल के आर्थिक व सांख्यिकी विभाग ने कभी भी जाति आधार पर जनगणना नहीं की है। राष्ट्रीय स्तर पर भी विभिन्न राज्यों में ऐसे किसी सर्वेक्षण या जनगणना की रिपोर्ट उपलब्ध नहीं हैं। दिलचस्प बात है कि बड़े दलों ने अपनी सहूलियत के मुताबिक जातिगत जमा-जोड़ तैयार कर रखे हैं। इन्हीं की फेहरिस्त में टिकटों का भी आबंटन होता है।
हिमाचल में भले ही सामाजिक सुधार गिनती के हुए हों। किंतु, अनुसूचित जाति वर्ग के साथ-साथ अन्य पिछड़े वर्गों की सहूलियत के लिए डा. यशवंत सिंह परमार के वक्त से ही कारगर कदम उठाए जाने शुरू हो चुके थे। काश्तकारों को, सेठ-साहूकारों के चंगुल से निकालने के लिए 1956 में बिग लैंड इस्टेट एंड लैंड रिफॉर्म एक्ट बनाया गया। इससे जमीन पर काश्तकारों का कब्जा हुआ। इसके बाद से उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार भी हुआ। लिहजा, आर्थिक तौर पर भी वे संपन्न होने लगे।
इसके बाद वर्ष 1972 में टेंनेंसी एंड लैंड रिफॉर्म एक्ट सामने आया। इसमें काश्तकारों को और राहत दी गई। इसमें यह प्रावधान भी था कि गैर हिमाचली प्रदेश में किसी भी तरह की भूमि नहीं खरीद सकते हैं। यूं कहा जा सकता है कि हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री डा. यशवंत सिंह परमार ने योग्यता के आधार पर जहां राजनीति में लोगों का चयन किया, वहीं उन्होंने जातिवाद को कम करने के लिए भी ऐसे ही कारगर कदम उठाते हुए पिछड़े वर्गों की स्थिति मजबूत करने का भी सफल प्रयास किया।
इन दोनों ही एक्ट के बाद प्रदेश में काश्तकारों की स्थिति बेहतर बनी। बागबानी व कृषि के क्षेत्र में भी उन्हें आगे बढ़ने का मौका मिला। भले ही वर्तमान में भी चाय-बागानों, सेब बागीचों व अन्य बड़ी नकदी फसलों के उत्पादन में संभ्रांत वर्ग का दबदबा हो, यह भी सच है कि डा. यशवंत सिंह परमार के जमाने से अब तक जो सुधार होते रहे हैं, उन्हीं के बूते पिछड़े व गरीब वर्ग की स्थिति सुधरने लगी है। नतीजा, आज ये छोटी छोटी जातियां भी हिमाचल की राजनीति में सक्रिय है और वोट बैंक पर खाशा प्रभाव भी रखती है।

This post was published on नवम्बर 5, 2017 13:10

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KKN न्‍यूज ब्यूरो

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