गुरूवार, जून 26, 2025
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सोशल मीडिया, सेना और सहानुभूति की राह पर पाकिस्तान का चुनाव

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भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान में 25 जुलाई को आम चुनाव होने जा रहा है और राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव प्रचार में पूरी ताक़त झोंक दी है। दूसरी ओर समीक्षक मतदाताओ का मिजाज टटोलने में लगे। यह टटोलने की कोशिश की जा रही है कि वह कौन से मुद्दे हैं जो पाक के मतदाताओं को प्रभावित कर सकतें हैं। क्या पाक के पूर्व पीएम नवाज शरीफ के जेल जाने से उनकी पार्टी को मतदाताओं की सहानुभूति का लाभ मिलेगा या पाक सेना की दखल का मतदाताओं पर असर पड़ेगा? हालांकि, जानकार मानतें हैं कि पाक के चुनाव में धार्मिक उन्माद और विकास का मुद्दा ही चलेगा। इस सभी के बीच सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और दुष्प्रचार के असर से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।

पाक चुनाव में सहानुभूति की लहर
दरअसल, पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भ्रष्टाचार के एक मामले में जेल में बंद हैं और कोर्ट ने उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा दिया हुआ है। बावजूद इसके आज भी पाक में वहीं मुस्लिम लीग का चेहरा बने हुएं हैं। कुछ जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान के अधिकांश लोगो को लगता है कि नवाज शरीफ को ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से हटाया गया है और उनके प्रति लोगो में जबरदस्त सहानुभूति है। नवाज ने भी खुद को पीड़ित के तौर पर पेश किया है। इसके अतिरिक्त नवाज़ शरीफ़ की पत्नी इस वक्त कैंसर से पीड़ित हैं और वह इस समय लंदन में वेंटिलेटर पर हैं। नवाज को इससे सहानुभूति मिलने की पूरी उम्मीद है। यदि, यह तर्क सही है तो नवाज की पार्टी मुस्लिम लीग की पाकिस्तान में वापसी हो सकती है।
पाक में सेना के दख़ल से इनकार नहीं
हालांकि, पाकिस्तान की राजनीति में वहां की सेना की दखल अब जग जाहिर हो चुकी है। पाकिस्तान के विश्लेषक खुलेआम कबूल करने लगें हैं कि फ़ौज अभी भी शक्तिशाली रूप से राजनीतिक साझीदार बनी हुई है। इस बीच पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके इसका खडंन भी कर चुकी है। सेना के प्रवक्ता ने कहा था कि चुनाव कराना पाकिस्तान के चुनाव आयोग का विशेषाधिकार है। बावजूद इसके पूरी दुनिया देख चुकी हैं कि पाकिस्तान में सेना की रुचि किसी राजनीतिक दल की हार या जीत का मुख्य कारण रही है। ऐसे में यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि सेना का अलग-अलग राजनीतिक दलों के प्रति क्या रवैया है? पाकिस्तान के चुनाव में सेना की शक्ति और प्रभाव एक वास्तविकता बन चुकी है। दरअसल, सेना के पास एक बड़ा वोट बैंक भी है। उनके पास 8 लाख जवान हैं। अगर आप उनके परिवार को मिला दें तो ये संख्या एक करोड़ हो जाती है।
धार्मिक उन्माद और जेहाद का असर
पाकिस्तान में लोगों के जीवन में धर्म एक महत्वपूर्ण कड़ी बन चुकी है। चुनाव भी इससे अछूता नहीं है। हालिया दिनो में पाकिस्तान में कई धार्मिक-राजनीतिक गठजोड़ों का उदय हुआ है। कहतें हैं कि जब से पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की मुस्लिम लीग और पूर्व क्रिकेटर इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ पार्टी के बीच मुक़ाबला कड़ा हुआ है, तब से चुनावों में धार्मिक गठबंधन की भूमिका भी बढ़ने लगी है। लिहाजा यदि किसी सीट पर हार-जीत का अंतर कम हुआ तो वहां राजनीतिक पार्टियां वोट लूटेंगी और वो मुख्य उम्मीदवार को हरा या जिता भी सकती हैं।बहरहाल, पाकिस्तान की राजनीति में धर्म सबसे शक्तिशाली ईंधन बन चुका है।
पाकिस्तान मेंआर्थिक पिछड़ापन
आप इसे बिडम्बना कह लें कि पाकिस्तान के गठन हुए सात दशक बीत जाने के बाद भी पाकिस्तान में आमतौर पर लोग चुनावी घोषणा-पत्रों और राजनीतिक पार्टी के आर्थिक एजेंडे पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। किंतु, इस बार पहली बार ऐसा देखा जा रहा है कि पाकिस्तान के आम चुनाव में रोज़गार, बिजली, मूलभूत विकास के मुद्दे मतदाताओं को प्रभावित करने लगे है। चौक चौराहो पर चर्चा आम है कि भारत में मोदी ने जो किया, वह पाकिस्तान में क्यों सम्भव नहीं है? मतदाताओं में एक बड़ा तबका ऐसा है जो मानता है कि इमरान ख़ान देश के विकास और बदलाव में सक्षम हो सकतें हैं। लोगो को उम्मीद है कि इमरान खान यदि सत्ता में आए तो मोदी की तरह देश में आर्थिक सुधार भी हो सकता है और विश्व के पटल पर मोदी को माकूल जवाब भी दिया जा सकता है।
पाकिस्तान में सोशल मीडिया का कमाल
पाकिस्तान के आम चुनाव में पहली बार सोशल मीडिया के असर से भी किसी को इनकार नहीं है। विश्लेषक मानते हैं कि सोशल मीडिया के द्वारा चलाई जा रही फ़ेक न्यूज़ का पाकिस्तान के मतदाताओं पर गहरा असर है और इससे किसी को इनकार नहीं है। लिहाजा, इस वक्त पाकिस्तान में सभी राजनीतिक पार्टियां सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हो गए हैं। सैकड़ों की संख्या में फ़र्ज़ी फ़ेसबुक और ट्विटर अकाउंट चलाये जा रहें हैं। ताकि, वह अपनी नीतियों और कहानियों को मतादाताओं तक अपने अंदाज में पड़ोस रहें हैं। हालांकि, पाकिस्तान में सोशल मीडिया की पहुंच अभी केवल 15 फ़ीसदी लोगों तक सीमित है। ऐसे में देखना बाकी है कि आगामी 25 जुलाई को मतदाता को सबसे अधिक कौन सा मुद्दा प्रभावित करता है और मतदाताओं का मिजाज किस करबट बैठता है?


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