नवगठित राज्य तेलंगाना 7 दिसंबर को विधानसभा के लिए मतदान करने जा रहा है। मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने समय से आठ महीने पहले ही इसे भंग कर दिया था। वह इस चुनाव को स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित करके आसान जीत हासिल कर लेना चाहते थे।
लेकिन अचानक ही मुकाबले में विपक्षी पार्टियों का महागठबंधन ‘महाकुटुंबी’ आ गया है। इस महागठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस कर रही है। कभी कॉग्रेस के कट्टर विरोधी रही टीडीपी भी अब साथ आ गई है। वाम पार्टियां और कोडंदरम द्वारा बनाई गई तेलंगाना जन समिति के इस संयुक्त मोर्चा में शामिल हो जाने से केसीआर की मुश्किलें बढ़ती हुई दिखाई पड़ने लगी हैं।
कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए चुनाव बाद जिस तरह कांग्रेस और जद (एस) की गठबंधन की सरकार बनी। इसी से प्रेरित होकर चंद्रबाबू नायडू ने तेलंगाना में भी कॉग्रेस के साथ गठबंधन बना लिया है। जिसके बारे कुछ रोज पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था। बतातें चलें कि नायडू की टीडीपी की स्थापना 1980 के दशक में उनके ससुर एनटी रामा राव ने की थी। इसका मुख्य उद्देश्य कांग्रेस को सबक सिखाना था। मगर अब करीब चार दशक के बाद नायडू, केसीआर को हराने के लिए उसी कांग्रेस से हाथ मिला चुके हैं।
वेशक, तेलंगाना के गठन के बाद मुख्यमत्री केसीआर ने अपने सरप्लस बजट के साथ लोक-कल्याण के कई कार्यक्रम शुरू किए और अपना राजनीतिक आधार को मजबूत भी बनाया। वास्तव में केसीआर को यह उम्मीद थी कि वह भाजपा और कांग्रेस को दूर रखते हुए एक फेडरल फ्रंट का नेतृत्व करेंगे। मगर केंद्र से आंध्र प्रदेश के लिए विशेष राज्य का दर्जा पाने में विफल रहने वाले नायडू ने एनडीए से नाता तोड़ लिया। अब वह विपक्षी एकता की बात कर रहे हैं, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है।
पहली नजर में तो यही लगता है कि कांग्रेस और टीडीपी के साथ आने से विधानसभा चुनावों में उनके वोट बढ़ने चाहिए। मगर चूंकि राजनीति कोई अंकगणित नहीं है। लिहाजा, आलोचकों का कहना है कि यह समझौता कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि टीआरएस और भाजपा दोनों के लिए नायडू सियासी दुश्मन हैं। टीआरएस नेताओं का तो यह भी कहना है कि आखिर वह पार्टी यानी टीडीपी कैसे वोट मांग सकती है, जो खुलकर यहां के विकास का विरोध करती रही हो? कांग्रेस ने इसका कोई मुखर जवाब अभी तक नहीं दिया है।
बतातें चलें कि केसीआर ने असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ गठबंधन किया हुआ है। जबकि भाजपा के साथ चुनाव बाद गठबंधन का विकल्प खुला रखा गया है। भाजपा ने भी यही घोषणा की है कि वह अकेली चुनाव में उतरेगी। मगर, संसदीय चुनावों का सामना करने के लिए भाजपा को टीआरएस जैसे क्षेत्रीय दलों की जरूरत है। देखा जाए, तो तेलंगाना का चुनाव दो विचारों की जंग है। पहले के खेवनहार क्षेत्रीय विकास के साथ केसीआर हैं। दूसरा है महागठबंधन, जो केंद्र में कांग्रेस की वापसी करा सकता है।
बहरहाल, अभी केसीआर लीड लेते दिख रहे हैं। कांग्रेस अब भी राज्य में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है। वह सत्ता-विरोधी रुझान और गठबंधन की ताकत में ही अपने लिए उम्मीद देख सकती है। केसीआर ने बड़ी चालाकी से समय-पूर्व चुनाव का दांव खेलकर कांग्रेस और भाजपा, दोनों से यह मौका छीन लिया है कि वे चुनावी जंग को राष्ट्रीय मुकाम पर ले जाएं। हालांकि केसीआर की पहली चुनौती यही होगी कि वह एक बार फिर उत्तरी तेलंगाना में फतह करें।
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