KKN न्यूज ब्यूरो। बाबा साहेब डॉ. भीम राव अंबेडकर ने संविधान सभा के समापन भाषण में जो कहा था, वह आज भी प्रासंगिक है। वह 25 नवंबर 1949 की तारीख थी। इतिहास में 25 नवंबर की तारीख स्वतंत्र भारत की एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना के साथ दर्ज है। 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की आख़िरी बैठक में बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर ने समापन भाषण दिया था। यहां यह उल्लेखनीय है कि बाबा साहब ने उस समय जिन चुनौतियों को राष्ट्र निर्माण में बाधक करार दिया था, वह आज भी उतनी ही विकरालता के साथ देश के सामने मौजूद है। यह उनकी दूरदर्शिता ही थी कि वह संविधान सभा के आख़िरी भाषण में आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के ख़ात्मे को राष्ट्रीय एजेंडे के रूप में सामने लाने की कोशिश कर रहे थे।
संविधान सभा के समापन सत्र को संबोधित करते हुए बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था – महोदय… संविधान सभा के कार्य पर नजर डालते हुए 9 दिसंबर 1946 को हुई इसकी पहली बैठक के बाद से अब तक दो वर्ष, ग्यारह महीने और सत्रह दिन बीत चुका है। संविधान सभा की प्रारूप समिति ने मुझे इसका अध्यक्ष निर्वाचित किया तो यह मेरे लिए आश्चर्य से भी परे था। मैं समझता हूं कि कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है। यदि, उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। ठीक इसके विपरित एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है। यदि, उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों…। यह मौजू आज भी प्रासंगिक है।
बाबा साहेब ने संविधान सभा में दिये गये भाषण में कहा था कि स्वतंत्रता आनंद का विषय है। पर, अब हमें अपनी जिम्मेदारियों पर भी ध्यान देना होगा। महात्मा गांधी और बाबासाहेब दोनों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सामाजिक निर्माण पर बल दिया था। बाबासाहेब का मानना था की राजनीतिक प्रजातंत्र के साथ हमें सामाजिक प्रजातंत्र की भी आवश्यकता है। वह कहते थे कि सामाजिक प्रजातंत्र एक ऐसी जीवन पद्धति है, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में अपनाया जाता है। सामाजिक धरातल पर भारत में बहुस्तरीय असमानता है। जिस समाजवाद की बात बाबासाहेब अपने भाषण और वक्तव्यों में करते हैं, उसे उनके कथित उत्तराधिकारियों ने सिर्फ एक वर्ग विशेष का समाजवाद बना कर आज राजनीतिक स्थायित्व की खोज में हैं। वे मानते थे कि यदि हमें वास्तव में एक राष्ट्र बनना है तो इन कठिनाइयों पर विजय पानी होगी। क्योंकि, बंधुत्व तभी स्थापित हो सकता है, जब हमारा एक राष्ट्र हो।
डॉ. अम्बेडकर समानता को लेकर काफी प्रतिबद्ध थे। उनका मानना था कि समानता का अधिकार धर्म और जाति से ऊपर होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को विकास के समान अवसर उपलब्ध कराना किसी भी समाज की प्रथम और अंतिम नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। अगर समाज इस दायित्व का निर्वहन नहीं कर सके, तो उसे बदल देना चाहिए। वे मानते थे कि समाज में यह बदलाव सहज नहीं होता है। इसके लिए कई पद्धतियों को अपनाना पड़ता है। आज जब विश्व एक तरफ आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ विश्व में असमानता की घटनाएँ भी देखने को मिल रही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि असमानता प्राकृतिक है। जिसके चलते व्यक्ति का रंग, रूप, लम्बाई तथा बुद्धिमता आदि में एक-दूसरे से भिन्नता स्वभाविक है। लेकिन समस्या मानव द्वारा बनायी गई असमानता से है। जिसके तहत एक वर्ग, रंग व जाति का व्यक्ति अपने आप को अन्य से श्रेष्ठ समझता है और संसाधनों पर अपना अधिकार जमाता है। भारत में इस स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 14 से 18 में समानता के अधिकार का प्रावधान करते हुए समान अवसरों की बात कही गई है। सभी को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए ही शोषित और दबे-कुचले समाज के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर के समानता के विचार न सिर्फ उन्हें भारत के संदर्भ में, बल्कि विश्व के संदर्भ में भी प्रासंगिक बनाता हैं।
डॉ अम्बेडकर भारतीय समाज में स्त्रियों की हीन दशा को लेकर काफी चिंतित थे। उनका मानना था कि स्त्रियों के सम्मानपूर्वक तथा स्वतंत्र जीवन के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। डॉ. अम्बेडकर ने हमेशा स्त्री-पुरुष समानता का व्यापक समर्थन किया। यही कारण है कि उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम विधिमंत्री रहते हुए ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में प्रस्तुत किया और हिन्दू स्त्रियों के लिए न्याय सम्मत व्यवस्था बनाने के लिए इस विधेयक में उन्होंने व्यापक प्रावधान रखे। उल्लेखनीय है कि संसद में अपने हिन्दू कोड बिल मसौदे को रोके जाने पर उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की बात कही गई थी। दरअसल स्वतंत्रता के इतने वर्ष बीत जाने के पश्चात व्यावहारिक धरातल पर इन अधिकारों को हूबहू लागू नहीं किया जा सका है। वहीं, आज भी महिलाएँ उत्पीड़न, लैंगिक भेदभाव और हिंसा की शिकार होती है। बाबा साहेब ने महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन, दहेज उत्पीड़न और संपत्ति में अधिकार देने की बात कही थी। हालांकि, इनमें से कई बात आज के संदर्भ में लागू है। इस संदर्भ में ध्यान देने वाली बात है कि हाल ही में समान नागरिक संहिता का प्रश्न पुनः उठाया गया है। उसका व्यापक पैमाने पर विरोध भी हुआ। जबकि बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने समान नागरिक संहिता का प्रबल समर्थन किया था।
डॉ. अम्बेडकर शिक्षा के महत्व से भली-भाँति परिचित थे। उनका विश्वास था कि शिक्षा ही व्यक्ति में यह समझ विकसित करती है कि वह अन्य से अलग नहीं है। उसके भी समान अधिकार हैं। उन्होंने एक ऐसे राज्य के निर्माण की बात रखी, जहां सम्पूर्ण समाज शिक्षित हो। वे मानते थे कि शिक्षा ही व्यक्ति को अंधविश्वास, झूठ और आडम्बर से दूर करती है। हालांकि, उनका यह भी यह भी मानना था कि शिक्षा का मतलब महज कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेना मात्र नहीं है। बल्कि, शिक्षा का उद्देश्य लोगों में नैतिकता व जनकल्याण की भावना को विकसित करना होना चाहिए। शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो विकास के साथ-साथ चरित्र निर्माण में भी योगदान दे सके। आज के दौर भी स्कूली शिक्षा बाबा साहेब के विचारों की कसौटी पर खड़ी नहीं उतर रही है। कहतें है कि डॉ. अम्बेडकर के शिक्षा संबंधित यह विचार आज शिक्षा प्रणाली के आदर्श रूप माने जाते हैं। उन्हीं के विचारों का प्रभाव है कि आज संविधान में शिक्षा के प्रसार में जातिगत, भौगोलिक व आर्थिक असमानताएं बाधक न बन सके, इसके लिए मूल अधिकार के अनुच्छेद 21-A के तहत शिक्षा के अधिकार का प्रावधान किया गया है।
अम्बेडकर ने 1918 में प्रकाशित अपने लेख भारत में छोटी जोत और उनके उपचार में भारतीय कृषि तंत्र का स्पष्ट अवलोकन किया है। उन्होंने भारतीय कृषि तंत्र का आलोचनात्मक परीक्षण करके कुछ महत्वपूर्ण परिणाम निकाले है। जिनकी प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है। उनका मानना था कि यदि कृषि को अन्य आर्थिक उद्यमों के समान माना जाए तो बड़ी और छोटी जोतों का भेद समाप्त हो जाएगा। इससे कृषि क्षेत्र में खुशहाली आएगी। उनके एक अन्य शोध ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। उन्होंने इस शोध में देश के विकास के लिए एक सहज कर प्रणाली पर बल दिया था। इसके लिए उन्होंने तत्कालीन सरकारी राजकोषीय व्यवस्था को स्वतंत्रत कर देने का विचार दिया था। भारत में आर्थिक नियोजन तथा समकालीन आर्थिक मुद़दे व दीर्घकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए जिन संस्थानों को स्वतंत्रता के पश्चात स्थापित किया गया उनकी स्थापना में डॉ. अम्बेडकर का अहम योगदान माना जाता है।
बाबा साहेब के जीवन पर गौर करें तो पता चलता है कि उनके सामाजिक चिन्तन में अस्पृश्यों, दलितों तथा शोषित वर्गों के उत्थान के लिए काफी संभावना झलकती है। वे उनके उत्थान के माध्यम से एक ऐसा आदर्श समाज स्थापित करना चाहते थे, जिसमें समानता, स्वतंत्रता तथा भ्रातृत्व के तत्व समाज के आधारभूत सिद्धांत हों। बाबा साहेब जिस प्रकार से आज प्रासंगिक होते जा रहें हैं वह शायद ही पहले कभी दृष्टिगोचर हुआ हो। आज हर एक आंदोलन में आप प्रायः बाबासाहेब की प्रतिमा के साथ संचालित होते हुए देख सकते हैं। क्योंकि, इतने सालों बाद बाबासाहेब का साहित्य और उनका दर्शन जनमानस तक आसानी से पहुंच रहा है। उनके विचार आज किसी न किसी माध्यम से जनता तक सुलभ हो रहा है। बाबासाहेब की दूरदर्शिता भी उनको आज के समय में प्रासंगिकता प्रदान करती है। अगर इनके विचारों को अमल में लायें तो समाज की ज्यादातर समस्याएं जैसे वर्ण, जाति, लिंग, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक सभी पहलुओं पर पैनी नजर रखी जा सकती है। साथ ही न्यू इंडिया के लिए एक नया मॉडल व डिजाइन भी तैयार किया जा सकता है।
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