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सामा, कौनी, मरूआ व कोदो की खेती विलुप्त होने के कगार पर

​जिउतिया स्पेशल

 

पर्वो मे खल रही इन फसलो की कमी, लोक परम्पारिक खेती से विमुख हो रहे किसान, जिउतिया मे मड़ुआ की जबर्दस्त मांग

 

संतोष कुमार गुप्ता

मीनापुर। एक दशक पूर्व मे ग्रामीण इलाको मे सामा, कौनी,मड़ुआ व कोदो की जमकर खेती होती थी। जौ और जनेरा से अटी-पटी खेतो की हरियाली देखते बनती थी। हालांकि इसका महत्व स्वास्थ्य के अलावा धार्मिक भी था। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पशुचारा व खेती की उर्वरा शक्ति से जुड़ा हुआ था। लेकिन मीनापुर प्रखंड व इसके आसपास के इलाको मे खेती की यह परम्परा विलुप्त होने के कगार पर है। अत्याधुनिक खेती के इस दौर मे परम्पारिक खेती को लोगो ने भूला दिया है। महदेईया के किसान जयनंदन बैठा बताते है कि पहले उनके इलाके मे हीरामन भगत,रामलषण प्रसाद व दहाउर ठाकुर जैसे दर्जनो किसान सामा की खेती करते थे। एक शाम सामा का भात खाने की दिनचर्या बन गया था। इसमे प्रचुर मात्रा मे पौष्टिक आहार हुआ करता था। सामा की खेती के बाद खेतो की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती थी। किंतु जिउतिया को वेकर मड़ुआ का आटा ढूंढे नही मिल रहा है।  हरितालिका तीज मे सामा का सत्तू ढूढे नही मिल रहा था। लोग किराना दुकान से सिर्फ विधि करने के लिए खरीद रहे है। पंडित बच्चू पांडेय बताते है कि हरितालिका तीज मे सामा व जिउतिया मे मड़ुआ का अलग महत्व है। इसको ऋतुफल के रूप मे भगवान भोले शंकर ग्रहण करते है। सामा सीजन का प्रसाद है। 50 ग्राम का पैकेट 20-25 रूपये मे मिल रहा है। घोसौत गांव के सुनिल कुमार झा बताते है कि उनके गांव मे पहले कौनी की खेती खूब होती थी। किंतु वह खुद तीस रूपये किलो खरीद कर खाते है। जिउतिया पर्व मे मड़ुआ की आंटे व सत्तु को खास माना जाता है। किंतु मड़ुआ की खेती यदा कदा ही देखने को मिलता है। स्वामी दयानंद सरस्वती किसान क्लब के संयोजक राकेश कुमार रौशन बताते है कि उनके इलाके मे अभी भी कुछ लोग मड़ूआ की खेती करते है। किंतु सामा,कौनी,मड़ुआ व कोदो का विलुप्त होना ठीक बात नही है। इन फसलो के अलावा जई,जौ,जनेरा आदि भी पशुचारा के साथ साथ मनुष्य व खेतो के सेहत के लिए बेहतर था। मधुमेय पीड़ित व्यक्तियों  के लिए वरदान है। मड़ुआ के अंकुरित बीजों  से माल्ट भी बनाते हैं जो कि शिशु आहार तैयार करने में काम आता है। बहुत समय से इसके दानों से उत्तम गुणों वाली शराब भी तैयार होता था।  कोदो  भारत का एक प्राचीन अन्न है जिसे ऋषि अन्न माना जाता था। किंतु मीनापुर इलाको मे अब यदा कदा ही इसको देखा जाता है।  यह एक जल्दी पकने वाली सबसे अधिक सूखा अवरोधी लघु धान्य फसल  है। इसका प्रयोग उबालकर चावल की तरह खाने में किया जाता है। इसकी उपज को  लम्बे समय तक सहेज कर रखा जाता था। अकाल आदि की विषम परिस्थितियो   में खाद्यान्न के रूप में इस्तेमाल किया जाता था । किंतु यह गुजरे जमाने की बात हो गयी। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा, 65.9 कार्बोहाइड्रेट तथा 2.9 प्रतिशत राख पाई जाती है। यह गरीबों की फसल  मानी जाती है क्योकि इसकी खेती गैर-उपजाऊ भूमियों  में बगैर खाद-पानी के की जाती है। मधुमेह के रोगियों  के लिए चावल  व गेहूँ के स्थान पर कोदों  विशेष लाभकारी रहता है। कृषि विभाग के अधिकारियो की माने तो विलुप्त हो रहे फसलो को बढावा देने के लिए कृषि विभाग कई तरह की योजनाए चला रही है।

This post was published on सितम्बर 12, 2017 19:33

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संतोष कुमार गुप्‍ता

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