KKN न्यूज ब्यूरो। बिहार समेत पूरे देश में जातीय जनगणना को लेकर इनदिनो बहस छिड़ी हुई है। अधिकांश ऐसे लोग है, जो विषय की गंभीरता को समझे बिना ही अपनी बात कह देते है। हालिया वर्षो में राजनीतिक कारणो से विरोध या समर्थन करने की खतरनाक प्रवृत्ति का तेजी से विस्तार हुआ है। जातीय जन गणना इससे अछूता नहीं है। बेशक, जातीय जनगणना आज की जरुरत है। बल्कि, जाति के साथ उसकी आर्थिक गणना भी आज की जरुरत बन चुकी है। यह समाज की एक कड़बी हकीकत है और इससे किसी को मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। कहतें है कि जब योजनाएं जाति के लिए बनाई जाती है और सुविधाएं जाति को दिएं जातें हैं। ऐसे में जातियों की गणना करने और उसकी आर्थिक स्थिति का वैज्ञानिक डेटा इखट्ठा करने से परहेज क्यों? यह बड़ा सवाल है।
ऐसे हुई विवाद की शुरूआत
वह 20 जुलाई 2021 का दिन था। उस रोज संसद का सत्र चल रहा था। सांसदो को संबोधित करते हुए केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानन्द राय ने संसद में एक बड़ी बात कह दी। उन्होंने कहा कि वर्ष 2021 की जनगणना में एससी और एसटी के अलावा अन्य जातियों की जातिवार गणना नहीं होगी। इसके बाद बिहार समेत पूरे देश की राजनीति में उबाल आ गया। विपक्ष के नेता जातीय गणना की मांग करने लगे। तर्क गढ़ा जाने लगा और जातीय गणना को देश हित में बताने की होर लग गई। कहा जा रहा है कि इससे जरूरतमंदों को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक मदद मिलेगी। दूसरी ओर केन्द्र की सरकार जातीय गणना को समाज को खंडित करने वाला कदम बता कर फिलहाल इससे इनकार कर रही है। जातीय गणना को लेकर सर्वाधिक गरमाहट बिहार में है। बिहार विधानसभा ने फरवरी 2019 और फिर फरबरी 2020 में दो अलग-अलग प्रस्ताव पास करके केन्द्र को भेजा हुआ है। इस प्रस्ताव में बिहार की राजनीतिक पार्टियों ने जातीय गणना की मांग की है। बिहार विधानसभा से पारित यह प्रस्ताव केन्द्र को भेज दिया गया है। यानी बिहार की राजनीति पहले से जातीय गणना के लिए संजिदा है। लिहाजा, अब बिहार में कर्नाटक की तरह राज्य सरकार के द्वारा अपने खर्चे पर जातीय गणना करने की मांग भी जोर पकड़ने लगा है।
जाति और आर्थिक गणना क्यों जरुरी
मैं पहले ही बता चुका हूं कि विरोध हो अथवा समर्थन। कारण राजनीतिक है। इससे कई लोग गुमराह होने लगे है। हालांकि, इस बीच अधिकांश ऐसे लोग है, जिनका मानना है कि सभी जातियों की और उनकी आर्थिक स्थिति की गणना की जाये। कहतें हैं कि इससे हकीकत सामने आ जायेगा और विकास की योजना बनाने में मदद मिलेगी। सभी को समान रुप से उसका हक मिलेगा और समाजिक तनाव भी कम हो जायेगा। प्रजातंत्र में प्रजा की मांग को सर्वोपरी माना गया है। जब अधिकांश लोग जतीय गणना की मांग कर रहें है। तो सरकार को गंभीर होना चाहिए। यह समय की मांग की है।
यूपीए-टू की सरकार ने क्यों प्रकाशित नहीं किया
वर्ष 2010 में मनमोहन सिंह की यूपीए- टू की सरकार ने जातीय गणना कराया था। इस जनगणना में जातीय आंकड़े तो जुटाए गए। लेकिन इसका प्रकाशन नहीं हुआ। सवाल उठता है कि इसका प्रकाशन क्यों नहीं हुआ। दरअसल, भारत में जातियों का आंकड़ा बहुत उलझा हुआ है। यहां जातियों के भीतर कई उप जातियां है। कहतें हैं कि जन गणना रिपोर्ट की स्क्रिनिंग के दौरान कई चौकाने वाले आंकड़े सामने आये थे। मशलन भारत में करीब 46 लाख जातियों का इस रिपोर्ट में खुलाशा होने से अधिकारी के साथ-साथ सरकार भी सकते में पड़ गई। इसका मतलब तो ये हुआ कि प्रत्येक 72 परिवार पर देश में एक जाति होगा। ऐसा कैसे हो सकता है? इसी को आधार बना कर तात्कालीन सरकार ने जातीय गणना की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करने का निर्णय लिया। भारत में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग बना हुआ है। यह आयोग सभी राज्यों में पिछड़ी जातियों की लिस्ट तैयार करता है। आयोग की लिस्ट के मुताबिक, बिहार में ओबीसी की कुल 136 जातियां है। जबकि कर्नाटक में इनकी संख्या 199 हो जाती है। इसी प्रकार अलग अलग राज्यों में इसके अलग संख्या बताई गई हैं। यानी, केंद्र और राज्यों के द्वारा बनाई गई ओबीसी लिस्ट की मिलान की जाये। तो सिर्फ इसी वर्ग में जातियों की संख्या हजारों में पहुंच जाती है। लिहाजा, कई लोगो का मानना है कि पहले किसी एक्सपर्ट कमेटी का गठन करके ओबीसी के लिए खास मानक निर्धारित किया जाये और इसको आधार बना कर ओबीसी की परिभाषा तय की जाये। इसके बाद उसी आधार पर जनगणना अधिकारियों को ट्रेनिंग दे कर जातीय गणना करनी होगी। दरअसल, यह एक तकनीक पहलू है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। पर, जब तक ओबीसी की परिभाषा तय नहीं होती है। तब तक प्रचलित जातियों की गणना करने में हर्ज क्या है?
ब्र्रिटिश इंडिया ने कब कराया था जातिय जनगणना
ब्रिटिश इंडिया की सरकार ने भारत में पहली और आखरी बार जातीय जनगणना वर्ष 1931 में की थीं। वर्तमान का पाकिस्तान और बांग्लादेश उस वक्त भारत का हिस्सा हुआ करता था। तब देश की कुल आबादी 30 करोड़ के करीब थी। इस गणना में हिन्दू वर्ग में पिछड़ी जाति की संख्या- 43.70 और अल्पसंख्यक वर्ग में पिछड़ी जातियों की संख्या- 8.40 बताई गई है। यानी कुल मिला कर पिछड़ी जातियों की कुल संख्या- 52.1 होती है। इसी को आधार मान कर आज तक योजनाएं बनती रही है। यहां एक बात और है, जो गौर करने लायक है। ब्रिटिश इंडिया ने वर्ष 1941 के जन गणना के दौरान भी भारत में जातियों की गिनती की थीं। किंतु, दूसरे विश्वयुद्ध का हवाला देकर इसके प्रकाशन पर रोक लगा दिया गया था। आजादी मिलने के बाद भारत की सरकार ने पहली बार वर्ष 1951 में जन गणना कराया। किंतु, इसमें जातिय गणना नहीं की गई। तब से भारत में यहीं परंपरा चली आ रही है। स्वतंत्र भारत में 1951 से 2011 तक की प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को छोड़ कर अन्य किसी जाति की गणना नहीं की गई। हालांकि, वर्ष 2011 में जातियों की गणना तो हुई। पर आंकड़ो का प्रकाशन नहीं किया गया। ब्रिटिश इंडिया ने पहली बार भारत में 1881 में जन गणना किया था और इसके बाद प्रत्येक दस साल पर जन गणना होती रही है। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भारत की जन गणना में शिक्षा, रोजगार और मातृभाषा की गणना करने का प्रचलन था। जो, जरुरत के हिसाब से आज बदल चुका है।
जाति आर्थिक गणना जरुरी
अधिकांश लोगो का मानना है कि भारत में जातीय जन गणना से किसी का कोई नुकसान नहीं होगा। उल्टे इससे समाज में तनाव कम होगा। लिहाजा, इसको लेकर किसी को भ्रम में रहने की जरुरत नहीं है। राजनीतिक बहकावे में आने की भी जरुरत नहीं है। कहतें हैं कि यह सभी के हित में होगा। दरअसल, यह आज की जरुरत है और इसके लिए समवेत प्रयास करने से समाजिक सौहार्द और बढ़ेगा। जरुरतमंदो को इसका उचित लाभ मिल जायेगा। इससे समाजिक असंतोष में कमी आयेगी और सरकार को भी विकास की योजना बनाने में कारगर मदद मलेगी।
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