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नक्कारखाने में ” नक्कारे की तूती “

  आधुनिकता की शोर मे गुम हो रही नगाड़े की धुन

 ग्रामीण इलाको मे नही गूंजती है अब नगाड़े की अवाज

आधुनिकता की आंधी मे गुम हो गया दो लकड़ियो का सरगम

ऑक्टोपैड के सामने गौण हो गया नक्कारे की धमक

 

  संतोष कुमार गुप्ता

मीनापुर। बहबल बाजार के सूर्य राम, हरका के बैधनाथ राम, मंगेया के रक्टू राम, मधुबनी के रामाशिष राम, बासुदेव छपड़ा गांव के अशर्फी साह व मुस्तफागंज बाजार के जीतन राम व राजेंद्र प्रसाद के नक्कारे की आवाज को याद कर मन मे लोकस्वर की तरंगे मन मे उमड़ने घुमड़ने लगती है। हालांकि इसमे से अधिकांश लोग अब इस दुनिया मे नही है। किंतु इनके नक्कारे से निकले मधुर धुन की चर्चा अब भी होती है। कुल मिलाकर साज और आवाज के शान नक्कारा(नगाड़ा ) की धुने अब नक्कारखाने की तूती बनकर रह गयी है। ग्रामीण इलाको मे अब इसकी धमक सुनायी नही देती है। रंगमंचो के साज के कतार मे भी अब नक्कारा कहीं नजर नही आता है। अब उसकी जगह ऑक्टोपैड ने ले लिया है। आधुनिकता की आंधी मे अब दो लकड़ियो का सरगम सुनायी नही देता।

मीनापुर मे विदेशिया नाचो की संख्या मे भारी कमी आयी है। हालांकि अब भी अधिकांश नाचो मे अब भी नगाड़े है। किंतु वाधको की कमी के कारण अब वहां भी ड्रमसेट का प्रयोग होने लगा है। भले ही सांस्कृतिक रंगमंचो से नक्कारे की खनक गुम हो गयी है। किंतु मीनापुर मे स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर देवकीनंदन का नक्कारे की लोकधुन प्रत्येक साल सुनायी देती है। आकाशवाणी रेडियो के कालाकारो के साथ उनका संगत सबके लिए आकर्षण का केंद्र होता है। देवकीनंदन बताते है कि नक्कारेे का अब भी कोई जबाब नही है। किंतु इसके कद्रदान मे कमी आ गयी है। नक्कारे से कभी बहुत कुछ करते थे किंतु अब दाल रोटी भी चलाना मुश्किल है। देवकीनंदन 1962 मे मैट्रीक करने के बाद नक्कारे बजाना शुरू कर दिया। वह 1975 से 80 तक सुप्रसिद्ध नृत्यांगना व गायक  गुलाबबाई के साथ काम किया। आशा उषा व महावीर सिंह के थियेटरो मे काम किया। अब वह आकाशवाणी के लोक धुन मे भी उनकी लहरी गुंजती है। उन्हे बिहार के गौरव पुरूस्कार से भी नवाजा गया। कविवसार विकास परिषद के संयोजक डॉ श्यामबाबू प्रसाद बताते है कि नक्कारे की धमक धीमा पड़ना लोक संस्कृति के लिए अच्छी बात नही है। ऑक्टोपैड कभी भी नक्कारे का विकल्प नही हो सकता। क्योकि उसमे सुर कम व धम्मक ज्यादा है। शास्त्रिय व सुगम संगित,गजल व लोकगायकी नक्कारे के बिना अधूरा है।

रंगमंचो की शान हुआ करता था नगाड़ा

नगाड़ा’ शब्द फ़ारसी और उर्दू के साथ हिन्दी में शामिल हुआ. हिन्दी में इसका एक रूप ‘नगारा’ भी है। इस शब्द का शुद्ध रूप है- “नक्कारः”, जिसका उर्दू में उच्चारण ‘नक्कारा’ है।  इस प्रकार इसका हिन्दी रूप ‘नगाड़ा’ या ‘नगारा’ है।  नक्कारः मूल रूप से अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- धौसा, भेरी, दुंदुभि आदि। भारतीय भाषाओं में यह शब्द इस्लामी समय में आया. अरबी में एक धातु है ‘नक्र’, जिसका अर्थ है- ‘किसी चीज को पीटना’ या ‘ठोकना’ आदि।  नगाड़ा एक ऐसा वाद्य है, जो चमड़े के पर्दे से ढका रहता है और इस चमड़े के पर्दे पर लकड़ी की दो छोटी छड़ों से प्रहार किया जाता है, जिससे जोरदार ध्वनि पैदा होती है।
कभी शाही फरमान के लिए बजता था नगाड़ा

वास्तव में नक्कारा या नगाड़ा संदेश प्रणाली से जुड़ा हुआ शब्द है। दरअसल शासन की महत्त्वपूर्ण घोषणाएँ आम जनता तक पहुँचाने के लिए नक्कारा होता था, जो सरे बाज़ार नगाड़ा पीटते हुए किसी सरकारी फरमान की घोषणा करता था। इसी तरह सेनाएँ जब कूच करती थीं तो भी नगाड़े बजाए जाते थे, ताकि सबको खबर हो जाये। मुग़लों के दरबार में एक नक्कारखाना होता था, जिसमें अहम सरकारी फैसले सुनाए जाते थे. फैसलों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करने के लिए ज़ोर-ज़ोर से नक्कारे बजाए जाते थे, जिससे सबका ध्यान उस ओर लग जाए। ऐसी मुनादियों में लोगों को सजाएँ देने से लेकर घर की कुर्की कराने जैसी बातें भी होती थीं।

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संतोष कुमार गुप्‍ता

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