वह 31 जुलाई 1980 की शाम का वक्त था, फिजा में खामोशी थी, जैसे कोई नश्तर टूट के दिल में चूभ गया हो। इसी खामोशी में, इसी मायूसी से भरे सन्नाटे में ‘शहंशाह-ए-तरन्नुम’ को सुपुर्दे ख़ाक किया जा रहा था
वह 31 जुलाई 1980 की शाम का वक्त था, फिजा में खामोशी थी, जैसे कोई नश्तर टूट के दिल में चूभ गया हो। इसी खामोशी में, इसी मायूसी से भरे सन्नाटे में ‘शहंशाह-ए-तरन्नुम’ को सुपुर्दे ख़ाक किया जा रहा था