राजेश कुमार
जब भी बच्चों को खेलते देखता हूँ, तो मुझे भी अपने बचपन की यादें ताजा हो जाती है। वो भी क्या दिन थे जब हम स्कूल इस लिए भी जाना नही छोड़ते थे कि शाम में खेलने का मौका मिलने वाला होता था और आज का भी दिन है जब बच्चे स्कूल न जाने का तरह तरह का बहाना बनाते हैं। आज हमारे बच्चे अपने परंपरागत खेलों से दूर होते जा रहे हैं। आज बच्चे क्रिकेट तक ही सिमट कर रह गए हैं।
पता नही वो दिन कब आएगा जब हमारे बच्चे उन पारंपरिक खेलों का आनन्द ले सकेंगे। कुछ ऐसे भी खेल हैं जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं। जब हम ही भूल जाएंगे तो हमारे बच्चे इन खेलों को कैसे जान पाएंगे।
वो भी एक दौर था जब हमारे विद्यालयों में फुटबॉल, वालीबॉल, खो- खो, कबड्डी, भाला फेंक, गोला फेंक जैसे खेलों का आयोजन किया जाता था। उन खेलों में जितने वाले बच्चों के बीच पुरस्कारों के वितरण भी किया जाता था। जिससे बच्चों के उत्साह में कमी भी नही होती थी। विद्यालय में संगीत एवं खेल के लिए पीरियड होता था। छात्र से लेकर शिक्षक तक इसका आंनद लेते थे। बच्चों के अभिभावक भी इसमें सहयोग करते थे।
आज के इस दौर में शाम तक बच्चे विद्यालय में रुकते ही नही हैं। कहतें है जब खेलों की बात हो तो क्रिकेट, मोबाइल गेम, कम्प्यूटर और टीवी को ही मनोरंजन का साधन मान लिया जाता है। आज के बच्चों में तो खो – खो जैसे खेल की जानकारी तक नही है और नाही खेलने की चाह। आज शिक्षक भी विद्यालय को ऑफिस मानकर आते और चले जाते हैं।