KKN न्यूज ब्यूरो। वर्ष 1962 के युद्ध की कई बातें है, जिसको समझना जरूरी है। बेशक हम चीन से युद्ध हार गए थे। चीन ने हमारे 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया था। पर, क्या 62 के युद्ध की सिर्फ इतनी सी हकीकत है? क्या कभी आपके मन में यह सवाल उठा कि हम हारे कैसे? क्या हुआ होगा सीमा पर? हमारे बहादुर और जांबाज सैनिकों को अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला भी या नहीं? ऐसे और भी कई सवाल है। इसका जवाब तलाशने के लिए 62 के युद्ध से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेजों का अध्ययन जरूरी हो गया है।
बात 18 नवंबर, वर्ष 1962 की है। लद्दाख के चुशुल घाटी में सुबह की सूरज निकलने से ठीक पहले घना कोहरा के साथ अंधेरा अभी ठीक से छठा भी नहीं था। चारों ओर बर्फ से ढकी घाटी और फिंजा में पसरी अजीब सी खामोशी। इसी खामोशी के बीच रेजांगला पोस्ट की रक्षा में तैनात था भारतीय फौज की छोटी टुकड़ी। खामोशी के उस पार बैठे खतरे को भारत के जवान ठीक से पहचान पाते। इससे पहले सुबह के ठीक साढ़े तीन बजे… घाटी का शांत माहौल अचानक गोलियों की तड़-तड़ाहट से गूंजने लगा। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी PLA के करीब तीन हजार जवानों ने रेजांगला पोस्ट पर धावा बोल दिया। चीन के सैनिकों के पास भारी मात्रा में गोला-बारूद था। सेमी आटोमेटिक रायफल था और आर्टिलरी सपोट भी था।
भारत की ओर से मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में चुशुल घाटी में 13 कुमाऊं रेजिमेंट की एक बेहद छोटी टुकड़ी मौजूद थीं। भारतीय सैन्य टुकड़ी में मात्र 120 जवान थे। वह भी थ्री-नॉट-थ्री रायफल के सहारे। थ्री-नॉट-थ्री रायफल को फायर करने से पहले प्रत्येक गोली लोड करना पड़ता था और खोखा को खींच कर निकालना पड़ता था। भारतीय सैनिक को उस वक्त यहां कोई आर्टिलरी सपोर्ट भी नहीं था। ऐसे में चीन के तीन हजार की विशाल फौज और जवाब में भारत के मात्र 120 जवान…। वह भी थ्री-नॉट-थ्री रायफल के सहारे। दूसरी ओर चीन के पास आधुनिक हथियारों का जखीरा मौजूद था। चुशुल घाटी की खतरनाक चोटियों पर उस वक्त भारत की ओर से आर्टिलरी का सपोर्ट भेजना मुमकिन नहीं था। क्योंकि, भारत की ओर से वहां तक रास्ता नहीं था।
इधर, सेंट्रल कमान ने रेजांगला के जवानो को उनके अपने विवेक पर छोड़ दिया। जरूरत पड़ने पर पोस्ट छोर कर पीछे हटने का आदेश भी था। किसी को उम्मीद नहीं थीं कि चीन की सेना रेजांगला में इतना जबरदस्त हमला कर देगा। ऐसे में रेजांगला के पोस्ट पर मौजूद मेजर शैतान सिंह को निर्णय लेना था। बताते चलें कि खराब मौसम की वजह से रेजांगला में मौजूद सैनिको का अपने बेस कैंप से रेडियो संपर्क टूट चुका था। इस बीच मेजर शैतान सिंह ने पोस्ट पर डटे रहने और पोस्ट की रक्षा करने का निर्णय कर लिया। फिर जो हुआ, वह कल्पना से परे है। बेशक हमारे सैनिक कम थे, साजो-सामान का घोर अभाव था। किंतु, उनके बुलन्द हौसलों की दास्तान इतिहास में दर्ज होने वाला था। कुमाउं रेजिमेंट के इन वीर जाबांजो को अंजाम पता था। वह जान रहे थे कि युद्ध में उनकी हार तय है। लेकिन इसके बावजूद बेमिसाल बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने अपने बेमिसाल शौर्य का प्रदर्शन करना मुनासिब समझा। मेजर शैतान सिंह की टुकड़ी ने आखिरी आदमी, आखिरी राउंड और आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ने का हुंकार भर दिया।
13 कुमाऊं के 120 जवानों ने युद्ध के पहले दो घंटे में ही चीन के 1,300 सैनिकों को मार गिराये। बाकी के चीनी सैनिक भारतीय पराक्रम के सामने टिक नहीं पाये और मैदान छोड़ कर भाग खड़े हुए। तीन- तीन गोली लगने के बाद भी मेजर शैतान सिंह ने पोस्ट नहीं छोरा। हालांकि, बाद में वे शहीद हो गये। इस लड़ाई में भारत के 117 सैनिक शहीद हुए और बंदी बने एक सैनिक भी चीन की सरहद को पार करके भागने में कामयाब हो गया था। मेजर शैतान सिंह को मरनो-परान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। बाद में कुमाउं रेजिमेंट के इस सैन्य टुकड़ी को पांच वीर चक्र और चार सेना पदक से सम्मानित किया गया। सैन्य इतिहास में किसी एक बटालियन को एक साथ बहादुरी के इतने पदक पहले कभी नहीं मिला था।
रेजांगला के उस युद्ध में जिन्दा बचे रामचन्द्र यादव को बाद में मानद कैप्टन की उपाधि दी गई। बतादें कि रामचंद्र यादव 19 नवंबर को कमान मुख्यालय पहुंचे थे। इसके बाद 22 नवंबर तक उनको जम्मू के एक आर्मी हॉस्पिटल में रखा गया। रामचन्द्र यादव ने अपने सैनिक अधिकारियों को युद्ध की जो कहानी बताई। दरअसल, वह रोंगटे खड़ी करने वाला है। रामचन्द्र यादव ने बताया कि मेजर शैतान के आदेश पर वे इस लिए जिन्दा बचे, ताकि पूरे देश को 120 जवानों की वीरगाथा का पता चल सके। उनके मुताबिक युद्ध के दौरान चीन की सेना दो बार पीछे हटी और री-इनफ्रोर्समेंट के साथ फिर से धावा बोल दिया। शुरू में चीन की ओर से काफी उग्र हमला हुआ था। किंतु, भारत की ओर से की गई जवाबी फायरिंग से चीन के सैनिकों की हिम्मत टूट गई। वे पीछे हटे और दुबारा हमला किया। इधर, भारतीय सैनिकों का गोला-बारूद खत्म होने लगा था।
मेजर शैतान सिंह ने बैनेट के सहारे और खाली हाथों से युद्ध लड़ने का फैसला कर लिया था। उस वक्त वहां एक सिपाही मौजूद था। उसका नाम राम सिंह था। दरअसल, वह रेसलर रह चुका था। मेजर शैतान सिंह से आदेश मिलते ही सिपाही राम सिंह दुश्मन पर टूट पड़ा। उसने एक साथ दो-दो चीनी सैनिक को पकड़ा और उसका सिर आपस में टकरा कर दोनों को एक साथ मौत के घाट उतारने लगा। राम सिंह ने आधा दर्जन से अधिक चीनी सैनिकों को थोड़ी देर में ही मौत के घाट उतार दिया। इस बीच चीन के एक सैनिक ने राम सिंह के सिर में गोली मार दी। शहीद होने से पहले रमा सिंह के रौद्र रूप को देख कर चीनी खेमा में हड़कंप मच गया था।
13 कुमाऊं के यह सभी 120 जवान दक्षिण हरियाणा के रहने वाले थे। इनमें से अधिकांश गुड़गांव, रेवाड़ी, नरनौल और महेंद्रगढ़ जिला के थे। रेवाड़ी और गुड़गांव में रेजांगला के वीरों की याद में भव्य स्मारक आज भी मौजूद है। इतना ही नहीं बल्कि, रेवाड़ी में हर साल रेजांगला शौर्य दिवस मनाया जाता है। यह बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। किंतु देश के अधिकांश लोग रेजांगला के इन बहादुर सैनिक और उनके कारनामों को ठीक से नहीं जानते हैं।
पहाड़ की बिहरो में हुई इस युद्ध को रेजांगला का युद्ध क्यों कहा जाता है? दरअसल, लद्दाख के चुशुल घाटी में एक पहाड़ी दर्रा है। इसको स्थानीय लोग रेजांगला का दर्रा बोलते है। चूंकि, इसी दर्रा के समीप वर्ष 1962 में 13 कुमाउं का अंतिम दस्ता मौजूद था और इसी के समीप यह भीषण युद्ध हुआ था। लिहाजा, इसको रेजांगला का युद्ध कहा जाने लगा। लद्दाख की दुर्गम बर्फीली चोटी पर चीनी सेना के साथ हुए रेजांगला युद्ध की गौरव गाथा अद्वितीय है।
रेजांगला का यह युद्ध 18 नवम्बर की सुबह में शुरू हुई थीं। किंतु, भारतीय सेना के सामने परीक्षा की घड़ी 17 नवंबर की रात में ही शुरू हो चुकीं थीं। दरअसल, 17 नवम्बर की रात इस इलाके में जबरदस्त बर्फिला तूफान आई थी। इस तूफान के कारण रेजांगला की बर्फीली चोटी पर मोर्चा संभाल रहे भारतीय जवानों का संपर्क अपने बटालियन मुख्यालय से टूट चुका था। तेज बर्फीले तूफान के बीच 18 नवम्बर की सुबह साढ़े 3 बजे चीनी सैनिक इलाके में घुस चुके थे। अंधेरे में हमारे बहादुर सैनिकों ने चीनी टुकड़ी पर फायर झोक दिया। करीब एक घंटे के बाद पता चला है कि चीनियों ने याक के गले में लालटेन लटका कर हमारे सैनिक को चकमा देने का काम किया है। दरअसल, चीनी सैनिक उस बेजबान जानवर को ढाल बना कर पीछे से भारतीय फौज पर हमला कर रहे थे।
सुबह करीब 5 बजे में मौसम थोड़ा ठीक होते ही भारत के सैनिक इस चाल को समझ गए। हालांकि, उन्हें सम्भलने का मौका मिलता, इससे पहले ही चीनी सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी सामने आ गई और झुंड में हमला करना शुरू कर दिया। हालांकि, भारत के जवाबी फायरिंग के सामने वे टिक नहीं सके। पीछे हटे और थोड़ी देर बाद दुबारा से हमला कर दिया।
सुबह के करीब 8 बजने को था। भारतीय सेना के पास गोली नहीं बचा था। बावजूद इसके हमारे बहादुर सैनिको ने हार नहीं मानी। लड़ाई जारी रहा। बैनेट से लड़े। खुले हाथों से लड़े। उन्हीं का बन्दूक छिन कर उन्हीं से लड़े। तबतक लड़ते रहे, जबतक शहीद नहीं हो गये। कहतें हैं कि इस लड़ाई में चीन का इतना जबरदस्त नुकसान हो गया कि चीन के सैनिक रेजांगला से एक कदम भी आगे बढ़ नहीं पाया। चीन को यह करारी शिकश्त शायद आज भी याद हो। यह सच है कि 62 में रेजांगला का युद्ध हम हार गये। पर, इससे भी बड़ा सच ये है कि चीन के दिलों दिमाग पर भारतीय पराक्रम का मुहर भी लगा गये।
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