KKN गुरुग्राम डेस्क | “फुले”, निर्देशक अनंत महादेवन की नई फिल्म, 25 अप्रैल 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। यह फिल्म भारत के दो महान समाज सुधारकों महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है।
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जब आज के दौर में ज़्यादातर फिल्में मनोरंजन, एक्शन और ग्लैमर पर केंद्रित होती हैं, वहीं फुले जैसे सिनेमा दर्शकों को इतिहास, संघर्ष और समाज सुधार की याद दिलाते हैं। यह फिल्म सिर्फ एक बायोपिक नहीं बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज़ है।
फिल्म की कहानी
फिल्म की शुरुआत होती है सावित्रीबाई फुले के बुढ़ापे से, जब वे अपने जीवन के संघर्षों को याद करती हैं। इसके बाद कहानी हमें ले जाती है उस दौर में, जब ज्योतिबा फुले ने सबसे पहले अपनी पत्नी को पढ़ाना शुरू किया और फिर समाज की लड़कियों को।
यह वो समय था जब:
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लड़कियों को पढ़ाना पाप माना जाता था
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छुआछूत, बाल विवाह, विधवा प्रथा जैसे सामाजिक कुरीतियां आम थीं
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ऊंची जाति के लोग निम्न जातियों की परछाईं से भी बचते थे
इन सबके बीच ज्योतिबा और सावित्री ने एक क्रांति की शुरुआत की, और यही इस फिल्म का सार है।
फिल्म की खासियत
फुले एक ऐसी फिल्म है जो धीमी गति से चलती है, लेकिन उसकी गहराई आपके दिल को छूती है।
क्यों देखनी चाहिए यह फिल्म?
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यह फिल्म हमारे समाज के असली हीरोज़ की कहानी कहती है
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फिल्म में कोई ज़ोरदार एक्शन या थ्रिल नहीं है, पर विचारों की शक्ति है
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फिल्म दिखाती है कि सिनेमा अभी ज़िंदा है, और फुले जैसी फिल्में इसका प्रमाण हैं
अभिनय: प्रतीक गांधी और पत्रलेखा का करियर बेस्ट प्रदर्शन
प्रतीक गांधी (ज्योतिबा फुले के रूप में)
प्रतीक गांधी हर फिल्म में नए रंग दिखाते हैं। इस फिल्म में उन्होंने ज्योतिबा फुले का किरदार इतनी सच्चाई से निभाया है कि आप उनके पिछले सभी किरदार भूल जाएंगे।
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उन्होंने जवानी से लेकर बुढ़ापे तक का सफर बेहद प्रभावशाली ढंग से दिखाया
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उनका आत्मविश्वास और संयमित अभिनय फिल्म की रीढ़ है
पत्रलेखा (सावित्रीबाई फुले के रूप में)
पत्रलेखा ने इस फिल्म में अपने अभिनय का सर्वोच्च स्तर दिखाया है।
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एक दृश्य में जब एक आदमी उन्हें धमकी देता है कि अगर उन्होंने लड़कियों को पढ़ाना बंद नहीं किया तो वह उनके पति को मार देगा, पत्रलेखा उसे कहानी सुनाकर ज़ोरदार थप्पड़ मारती हैं
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उनका पहनावा, हावभाव और संवाद, उन्हें असल में सावित्रीबाई जैसा बना देता है
यह दोनों कलाकार नेशनल अवॉर्ड के हकदार हैं, और उनके काम को लंबे समय तक याद रखा जाएगा।
निर्देशन और लेखन
अनंत महादेवन, जो एक प्रतिभाशाली अभिनेता के साथ-साथ शानदार निर्देशक भी हैं, ने फुले को संतुलित, संवेदनशील और प्रभावशाली बनाया है।
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उन्होंने फिल्म को इतना ज्ञानवर्धक बनाया कि आप बोर नहीं होते
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फिल्म में जो दिखाना था, वो बिल्कुल सही मात्रा में और सही समय पर दिखाया गया
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स्क्रीनप्ले उन्होंने मुअज्जम बेग के साथ मिलकर लिखा है, जो ऐतिहासिक और भावनात्मक दोनों पहलुओं को बखूबी दर्शाता है
संगीत और बैकग्राउंड स्कोर
रोहन प्रधान और रोहन गोखले की जोड़ी ने फिल्म को एक संगीतात्मक आत्मा दी है।
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गीत भावनात्मक हैं और कहानी में प्राकृतिक रूप से समाहित हैं
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गानों को आप थिएटर से बाहर आकर भी सुनना चाहेंगे
तकनीकी पक्ष: सिनेमैटोग्राफी और प्रोडक्शन डिजाइन
फिल्म की शूटिंग, लाइटिंग और सेट डिज़ाइन उस समय की सच्चाई को दर्शाते हैं:
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कपड़े, घरों की बनावट, स्कूल और गलियों को बहुत बारीकी से दिखाया गया है
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कैमरा वर्क शांत और स्थिर है, जो दर्शकों को दृश्य के भीतर ले जाता है
सामाजिक महत्व: क्यों ज़रूरी है फुले जैसी फिल्में देखना?
फिल्म का आखिरी डायलॉग गूंजता है –
“लोगों को धर्म के नाम पर लड़ाना सबसे आसान है, इसलिए उनका शिक्षित होना जरूरी है।”
यह डायलॉग आज के भारत की सच्चाई को उजागर करता है।
फुले जैसी फिल्में हमें याद दिलाती हैं कि:
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महिला शिक्षा,
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जातिवाद के खिलाफ संघर्ष,
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और समानता की लड़ाई,
इन सबके पीछे ऐसे नायकों का बलिदान रहा है।
क्या फिल्म हर किसी को पसंद आएगी?
शायद नहीं।
जिन्हें तेज रफ्तार, मसाला और व्यावसायिक ड्रामा पसंद है, उन्हें यह फिल्म धीमी लग सकती है।
लेकिन जो सिनेमा में संदेश, इतिहास और सच्चाई ढूंढते हैं — उनके लिए यह फिल्म जरूरी है।
फुले सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक आंदोलन की जीवंत झलक है।
यह फिल्म एक ऐसे दौर की कहानी कहती है जिसे भूलना नासमझी होगी।
यह फिल्म दिखाती है कि जब तक हम ऐसी फिल्में देखेंगे नहीं, तब तक ऐसी फिल्में बनेंगी नहीं।
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