जाति बनाम जमात की बिसात पर किसकी होगी जीत
KKN न्यूज ब्यूरो। बिहार में पंचायत चुनाव की डुगडुगी बजते ही गांव की राजनीति में हलचल देखी जा रही है। जनमानुष के कसीदा पढ़ने वाले… और, विरोधियों की मर्सियों से लवरेज लोगो की जुटान का दिलचस्प नजारा… गांव की गलियो से लेकर, नुक्कड़ तक की रौनक बढ़ा रही है। समाज सेवको की नई कतारे खड़ी हो गई है। इमान का बोलबाला है और संकेतो में लोभ की लचक भी है। तहजिब की तरकिब गढ़ी जा रही है और निगाहे समीकरण पर टिका है। सवाल, गांव की सत्ता पर काबिज होने की कोशिश का नहीं है। सवाल, जीत के लिए जुगत की तरकिब का है। सवाल ये, कि क्या जीत का आधार फिर वही जाति बनेगा… या, जमात उसको चुनौती देगा?
गावों में आज भी गरीबी है… अशिक्षा है… बीमारी और कुपोषण है। बेशक, बीते वर्षों में विकास हुआ है। किन्तु, उसकी गति और गुणवत्ता सवालो के घेरे में है। नियंत्रण और निर्धारण करने वालों की तिजोरियां तो खूब भरी… लेकिन, योजना का लाभ उपयुक्त व्यक्ति को समुचित मिला की नहीं? इसको लेकर संशय बरकरार है। सवाल ये, कि पंचायत का संसाधन, चुनिंदा लोगो के विकास का साधन कैसे बन गया? क्या, सत्ता के विकेन्द्रीकरण का सपना इसीलिए देखा गया था?
ग्राम स्तर पर आज भी अच्छे और समाज के हित के लिए काम करने वालों के लिए बहुत से अवसर हैं। इसके लिए जरुरी है कि स्थानीय प्रतिनिधि में मजबूत इच्छाशक्ति हो… सोच में विकासवाद हो और चरित्र, समतामूलक। ऐसे नेता जातिवाद की उपज हो ही नहीं सकते। यानी, सुचिता चाहिए तो जमात को आगे बढ़ना होगा। मोटे तौर पर कहे तो आज के ग्राम पंचायत के पास अब संसाधनों की कमी नहीं है। सरकार की बहुत सी योजनाएं मददगार हो सकती है। पर, इसके लिए इच्छाशक्ति चाहिए। समाज जागरुक हो, तो सम्भव है। अन्यथा, कसीदा और मर्सियों के साथ प्रलोभन की जादूगरी के बीच परिवर्तन के दंभ को दम तोड़ते देर नही लगेगा।
गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा, संसाधन युक्त स्वास्थ्य, विकास परख रोजगार और स्वस्थ्य पर्यावरण के बिना सामाजिक उत्थान की परिकल्पना बेमानी है। मेरा यह स्पष्ट मानना है की पारदर्शी सूचना के अभाव में सम्यक विकास सम्भव नहीं है। समाज को अपने अधिकार ही नहीं बल्कि, कर्तव्यों के प्रति जागरूक होना होगा। गलत सूचनाएं ग्रामीण समाज को कुंठा की दलदल में धकेल रहा है। बुनियाद हिला रहा है। उसकी जड़ो को कमजोर कर रहा है। लिहाजा, ग्रामस्तर पर सटीक और सम्यक सूचना पहुचाने की व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए प्रत्येक गांव में पुस्तकालय का निर्माण कराना होगा। जहां दैनिक और साप्ताहिक अखबार आम लोगो के लिए सुलभ हो। जहां, आने वाला प्रत्येक इंसान स्वच्छता का संकल्प ले सके। पंचायत में कूड़ेदान की व्यवस्था सुनिश्चित कर सके। शौचालयों का सिर्फ निर्माण ही नहीं। बल्कि, उसके उपयोग की धारणा को आत्मसात कर सके। स्त्रियों की सर्वत्र भागीदारी सुनिश्चित करने में मदद कर सके और ऐसा करने की चाहत रखने वाला प्रतिनिधि का चयन कर सके।
प्रतिनिधि ऐसा हो, जो पौधरोपण और उसके संरक्षण को महज सरकारी योजना नहीं… बल्कि, लोगो की दैनिक आदतो में शामिल कराने की माद्दा रखता हो। सिंचाई के साधन को जन जरुरत बनाने और पानी की बर्बादी रोकने वाला प्रेमी बनाने का माद्दा रखता हो। जिसके पास सौर उर्जा को घर-घर तक पहुंचाने की सबल योजना हो और जिसमें स्वरोजगार सृजन करने में लोगो की मदद करने की प्रवृत्ति भी हो। जो, ग्रामीण उत्पादन के लिए बाजार की व्यवस्था कर सके और कुटीर उद्दोग व दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा दे सके। जिसमें प्रकाश युक्त आवागमन को सुगम करने की जिद हो और जो पंचायत के बृद्धजन, मुसमात और सभी प्रकार से असहाय लोगो की मदद करने की हुनर जानता हो। उनतक सरकारी योजनाओं को पहुंचाने की क्षमता रखने वाला हो। उसके भीतर रैनबसेरे और सामुदायिक भवन बनाने की इच्छाशक्ति हो और वह कमजोर लोगो को सहयोग करने की कठिन राह पर अकेला चलने की हिम्मत रखता हो। क्योंकि, इस क्षेत्र में काम करने वाला कई समाजिक संस्थाएं मौजूद है। जरुरी है कि हम जिसको प्रतिनिधि चुन रहें है, उसके पास ऐसे संस्थानो से सांमजस स्थापित करने की भरपुर क्षमता हो।
सार्वजानिक वितरण प्रणाली हो या अन्य सरकारी योजनाएं। स्वक्ष पेयजल की निर्बाध आपूर्ति हो या गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की व्यवस्था करना। यह वहीं कर सकता है, जो कट्टर नहीं हो। यानी, घोर जातिवादी या धार्मिक उन्माद की इच्छा रखने वाला… चाहे कितना भी चिकनी बातें कर ले। अंत में वह लुटेगा ही। लिहाजा, यदि ऐसे लोगो को समय रहते पहचान करके उनको प्रतिनिधि बनने से रोका नहीं गया और अच्छे लोगो का चयन करने में चूक हुई तो निश्चित रूप से समाज का विकास बाधित होगा और अभी तक जो होता रहा है… वहीं होगा। फिर बाद में पछताने से कुछ नहीं होगा।