खलिहान से लेकर सांस्कृतिक मंचो तक, नही सुनाई देता चैता की धुन

​संतोष कुमार गुप्ता

मुजफ्फरपुर। बिहार में चैत महिना का अलग महत्व है। मुजफ्फरपुर जिले के मीनापुर प्रखंड में दो दशक पूर्व यह महिना कुछ खास होता था। गेंहू का खेत हो या गांव का चैपाल। हमें चैता का कर्णप्रिये ध्वनी जरूर सुनाई देता था। किंतु, चैत महिना का जवानी अब परवान चढने लगा है। खेतो से गेंहू कटने लगे है। बाचजूद इसके चैता की जगह अब वह सिर्फ थ्रेसर की कानफाड़ू शोर ही सुनाई दे रहा है। विक्रम संवत के पहले महीने चैत्र (चैत) को भारतीय पंचांग में वर्ष का पहला महीना माना जाता है। इस महीने में गाए जाने वाले गीत ‘चैता’ का अपना अलग महत्व है।
चैत्र यानी मधुमास के दिनों में बिहार के खेतों में रबी की पकी हुई फसल और पक चुकीं सरसों की बालियां, खलिहानों में पहुंच गई होती हैं। इस मौसम में किसान खेतों के बजाए खलिहानों में ही ज्यादा समय बिताते हैं। बिहार में मधुमास के दिनों में चैता गाने की पुरानी परंपरा है। चैता गीतों को जब ढोलक और झाल की संगत मिलती है, तब लोगों का मन भी झनझना उठता है।
पुराने चैता गायकों का मानना है कि लोक संस्कृति चाहे किसी भी क्षेत्र की हो, उसमें ऋतुओं के अनुकूल गीतों का समृद्ध खजाना होता है। उत्तर भारत के अवधी व भोजपुरी भाषी क्षेत्र की लोकप्रिय गायन शैली ‘चैता’ है। मैथिली भाषियों के मिथिला क्षेत्र में इसे चैती कहा जाता है। इसकी एक और किस्म ‘घाटो’ भी है। चैत्र मास में गांव के चौपाल में महफिल सजती थी और एक विशेष परंपरागत धुन में श्रृंगार और भक्ति रस मिश्रित चैता गीत देर रात तक गाए जाते थे।
इस महीने में बिहार के गांवों से लेकर शहरों तक में चैता का आयोजन किया जाता था। बिहार और उत्तर प्रदेश में चैत महीने में गाए जाने वाले गीत को चैता, चैती या चैतावर कहा जाता है। इस महीने रामनवमी के दिन भक्ति रस में डूबे चैता गीत खासतौर से गाए जाते हैं। चैता के गायकों का कहना है कि चैता में राम के जन्म को विस्तार से गाने की परिपाटी नहीं है। लेकिन, जनकपुर की पुष्प वाटिका में राम-सीता मिलन, सीता स्वयंवर से लेकर राम वनवास और राम द्वारा सीता के निर्वसन का वर्णन चैता के गीतों के माध्यम से किया जाता है। इन गीतों में मुख्य रूप से इस महीने के मौसम का वर्णन भी होता है।
पैक्स अध्यक्ष शिवचंद्र प्रसाद कहते है कि पुराने दिनो की यादें अब कसक देती है। ना वह टीम है, ना ही अब लोगो के पास फुर्सत। पूर्व प्राचार्य जयनारायण प्रसाद कहते है कि हमलोगो की सांस्कृतिक विरासत खतरे में है। उम्र के अंतिम पड़ाव मे चल रहे सीताराम साह का कहना है कि चैत महीने को ऋतु परिवर्तन के रूप में जाना जाता है। पतझड़ बीत चुका होता है और वृक्षों और लता में नई-नई कोपलें आ जाती हैं। किंतु आ गइले चइत के महिनमा हो रामा, पिया ना ही अइले गीत सुने जमाने बीत गये है।
चैता मे में शिव पार्वती का भी संवाद कर्णप्रिय लगते हैं। रामनवमी के मौके पर ‘जनम लिए रघुरैया हो रामा, चैत महिनवां, या ‘घरे-घरे बाजेला बधइयां हो रामा’ काफी प्रचलित व कर्णप्रिय चैता गीत हैं। चैत रामनवमी के अवसर पर बहवल बाजार, भटौलिया, तालिमपुर, महदेइया, गांधीनगर व गोरीगामा सहित कई जगहो पर मेले का आयोंजन किया गया है। सांस्कृतिक कार्यक्रमो की गूंज है। किंतु वहां के रंगमंचो पर चैता का नामो निशान नही है।

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