कांग्रेस सांसद और लेखक शशि थरूर ने हाल ही में आपातकाल (1975–1977) पर बयान दिया है, जिसके बाद देश में चर्चा शुरू हो गई। थरूर ने इसे “भारत के इतिहास का काला अध्याय” बताया और कहा कि आपातकाल में लोकतंत्र का गला घोंटा गया। वर्तमान भारत 1975 के दौर से अलग है, लेकिन उससे मिले सबक आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।
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थरूर का खतरा की चेतावनी
थरूर ने अपने लेख में साफ शब्दों में लिखा: “लोकतंत्र को हल्के में लेने की भूल न करें।” उन्होंने आगाह किया कि सत्ता को केंद्रीकृत करने और असहमति को दबाने की प्रवृत्ति हर वक्त उभर सकती है, और अक्सर इसे “राष्ट्रीय हित” या “स्थिरता” के नाम पर जायज़ ठहराया जाता है। यह आपातकाल की सबसे बड़ी सीख है, और लोकतंत्र के संरक्षकों को सतर्क रहने की आवश्यकता है।
आपातकाल की कहानी: 25 जून 1975–21 मार्च 1977
आपातकाल की घोषणा तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने की थी। इस दौरान:
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प्रेस की स्वतंत्रता थोपकर छीन ली गई
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सांसदों को अयोग्य घोषित किया गया
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नागरिक अधिकारों पर रोक लगाई गई
थरूर ने बताया कि सत्ता बनाए रखने के लिए निगरानी, दबाव और डर का माहौल बन गया था। इन धाराओं ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को क्षतिग्रस्त किया।
जबरन नसबंदी अभियान: ग्रामीणों पर अत्याचार
थरूर ने उस समय के नोट कराए: आपातकाल के दौरान संजय गांधी की अगुवाई में चलाए गए जबरन नसबंदी अभियान ने गरीब और ग्रामीण इलाकों में भय और हिंसा फैलाई। थरूर लिखते हैं:
“लक्ष्य पूरे करने के लिए दबाव, जबरदस्ती और खुला उत्पीड़न इस्तेमाल किया गया।”
नतीजतन:
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हजारों लोग जबरन नसबंदी के शिकार हुए
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झुग्गियों को बिना चेतावनी ढहा दिया गया
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लोगों को बेघर कर दिया गया, जबकि उनकी देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं थी
इसने लोकतंत्र की जड़ों को गहरी चोट पहुंचाई।
🇮🇳 भारत आज 1975 जैसा नहीं—लेकिन सतर्कता ज़रूरी
थरूर ने कहा कि आज का भारत बदल गया, आत्मविश्वास, तकनीक और संस्थानों में मजबूती के मामले में काफी volwassen है। उन्होंने उल्लेख किया:
“आज हम अधिक आत्मविश्वास, विकसित और राजनीतिक रूप से मजबूत लोकतंत्र हैं।”
फिर भी उन्होंने कहा कि आपातकाल की सबक अभी भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि केंद्रित सत्ता और विरोध दबाने की प्रवृत्ति कहीं आना-जाना नहीं मानी।
लोकतंत्र की रक्षा: क्यों जरूरी है सतर्क रहना?
थरूर ने स्पष्ट किया कि लोकतंत्र सिर्फ चुनावों का नाम नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की आज़ादी, कलम की स्वतंत्रता, विपक्ष की आवाज़, और संवैधानिक मर्यादाओं से संजोया गया ताना-बाना है।
उनके अनुसार, ये संस्थाएं तभी टिकती रहेंगी, जब हर नागरिक, राजनीतिज्ञ और मीडिया उनका बचाव तत्परता से करेगा।
आपातकाल की सीख: इतिहास से सबक क्यों महत्वपूर्ण
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स्वतंत्रता छीनना: कैसे अचानक लोकतांत्रिक मूल्यों को रद्द कर दिया गया था।
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नागरिक अधिकारों का दमन: सूचना, बोले की आज़ादी और आंदोलन की आज़ादी पर ग्रहण।
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लोकतांत्रिक संस्थानों की दुर्बलता: संसद, कोर्ट्स और मीडिया की क्षति।
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सत्ता का केंद्रीकरण: विपक्ष की आवाज़ और विचारों की विविधता का गला घोंटना।
इनका पुनः आकलन आज भी जरूरी है।
ताज़ा राजनीतिक संदर्भ: क्यों उठी यह आवाज़?
आज भारत में:
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समाचार मीडिया पर कड़े नियंत्रण के दावों की चर्चा हुई है।
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प्रवचन नियंत्रित करने वाले कई अध्यादेशों पर बहस हुई है।
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विरोध आवाज़ों पर कानूनी कार्रवाई और सामाजिक दबाव बढ़े हैं।
इन सब पृष्ठभूमियों में थरूर की यह बयान आपातकाल से जुड़े सवालों को नया आयाम देता है।
शशि थरूर: कांग्रेस का प्रखर आलोचक
थरूर अक्सर मुश्किल और जटिल राजनीतिक स्थितियों पर स्पष्ट, स्वतंत्र और सशक्त बयान देते हैं। वे केवल आपातकाल ही नहीं, बल्कि वर्तमान सरकार की कुछ नीतियों पर भी अपनी चिता जता चुके हैं, साथ ही सरकार की प्रशंसा भी की है—जिससे उनकी “दोहराव” का स्वर बना रहता है।
लोकतंत्र की सुरक्षा: अब किस दिशा में आगे बढ़ना है?
थरूर की अपील में शामिल हैं:
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सत्ता और अधिकारों का वितरण
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मीडिया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता
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सभ्यतापूर्ण सार्वजनिक बहस
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सोच की विविधता और विचारों की सशक्तता को बनाए रखना
ये कदम भारतीय लोकतंत्र की चिरस्थायित्व की दिशा में बढ़ते कदम होंगे।
शशि थरूर का यह बयान सिर्फ इतिहास की समीक्षा नहीं, बल्कि एक सतर्कता का अलार्म है — यह याद दिलाता है कि लोकतंत्र की रक्षा एक निरंतर प्रक्रिया है, न कि पूर्ण हो चुकी जीत।
1975 के काले अध्याय से मिली सीखों को भुलाया नहीं जा सकता। वर्तमान और भविष्य के भारत के लिए यह संदेश महत्वपूर्ण है: लोकतंत्र को बचाने में हम सब की जिम्मेदारी है।
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