मानव जीवन के लिये पर्यावरण अमृत के समान है। पर्यावरण की सुरक्षा के बिना मानव जिन्दा नही रह सकता। मानव के जीवन और संस्कृति के प्रायः हर पक्ष में प्रकृति और पर्यावरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जाता है।
पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर केंद्र और राज्य सरकारे भी गम्भीर हैं। समय समय पर कई कानून व नियम बनाये गए। कई सामाजिक कार्यकर्ताओ और संस्थाओ ने इसे जन अभियान के तहत इस पर पहल की है। किन्तु, इसकी सार्थकता धरातल पर नही दिख रही है। पर्यावरण सुरक्षा को लेकर महिलाओं ने काफी गम्भीरता दिखाई। जिसके परिणाम चिपको आंदोलन हुई। उग्र भौतिकवाद, औधोगिकरण तथा आर्थिक चकाचौध के वर्तमान युग में निहित स्वार्थ के लिये हरे वृक्षो को काटा जा रहा है। छोटे बड़े उधोगो कल कारखाने की कचरे और दूषित तत्व खुले में बहाये जा रहे है। वृक्षो को काटकर लकड़ी का अवैध व्यापार किया जा रहा है।
यही कारण है कि 1970 के दशक में एक अनपढ़ महिला गौड़ा देवी के नेतृत्व में महिलाएं पेड़ो से चिपक गई और ठेकेदारों को कहा कि पहले हमे काटो तब पेड़ को। महिलाओ के आक्रोश को देख ठेकेदारों को भागना पड़ा और वहाँ पेड़ो की रक्षा हो सकी। जिसे चिपको आंदोलन की संज्ञा दी गई। उत्तराखण्ड के सुदूर पूर्व गांव में ग्रामीण महिलायो ने एक पर्यावरणीय नारीवाद आंदोलन की शुरुआत की। जिसके फलस्वरूप गाँधीवादी कई समूह बने, जो पर्यावरण सुरक्षा को बल दिया। उसके बाद कर्नाटक में एपिको आंदोलन हुई ।
1992 में रियो कान्फ्रेंस में वैश्विक पर्यावरण पर गम्भीर चिंता की गई और वायु प्रदूषण पर विशेष चर्चा हुई। वायु में घुलनशील होनेवाले अधिकतर धूल कण औधोगिक संस्थानों व पेट्रोल, डीजल इंजन द्वारा चालित वाहनों के धुएं से होने वाले खतरे पर भी चर्चा हुई। फलतः इसे नियंत्रित करने हेतु सीएनजी से संचालन की व्यवस्था की गई । सरकार ने मानव पर्यावरण समिति की 1970 में गठन की। पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम बनाये गए। केंद्रीय गंगा प्राधिकरण बनाये गये। जल प्रदूषण निवारण और नियंत्रण बोर्ड बनाये गए। इनके द्वारा पर्यावरण संरक्षण आंदोलन को एक नई दिशा मिली और सुधार की और कदम है। किन्तु इस पर एक ठोस कानून बनाकर जन आंदोलन व जन अभियान जरूरी है ताकि हम मानव मूल्यों खातिर पर्यावरण की सुरक्षा कर सके।
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