KKN न्यूज ब्यूरो। कहतें हैं आदमी गलत हो, तो उसे अपना दोस्त नही बनाना चाहिए और नाही उससे कोई मदद ही स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि, कालांतर में इससे आपका नुकसान हो जायेगा। इतिहास के पन्नो में झाके तो तिब्बत इसका ज्वलंत मिशाल के रूप में दिख जायेगा। बहुत कम लोग इस बात से वाकिफ हैं कि कभी तिब्बत ने, चीन से अपनी रक्षा के लिए सैन्य मदद मांगी थी। चीन ने मदद भी किया। लेकिन, बाद में धोखे से चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। तिब्बत पर धोखे से कब्जा करने के बाद चालाक चीन की निगाहें अब भारत और नेपाल की सीमा पर लगी हुई है। चीन एक ऐसा देश है जो आज भी अपनी विस्तारवादी नीति पर काम कर रहा है। अब वह भारत के अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, भूटान और लद्दाख पर अपना दावा ठोकता रहा है। आने वाले दिनो में नेपाल का भी यहीं हश्र होने वाला है।
दरअसल, हुआ यें कि 19वीं सदी के आरंभिक वर्षो में तिब्बत और नेपाल के बीच अक्सर युद्ध होने लगा था और हर बार युद्ध में तिब्बत को हार का सामना करना पड़ रहा था। लिहाजा, नेपाल ने हर्जाने के तौर पर तिब्बत को प्रत्येक वर्ष 5 हजार नेपाली रुपया बतौर जुर्माना देने की शर्त पर हस्ताक्षर करा लिया। इससे आहत होकर तिब्बत के शासक हर्जाने की अदायगी से बचने के लिए चीन से सैन्य सहायता की मांग कर दी। मौकापरस्त चीन ने मदद की भी। चीन की मदद के बाद तिब्बत को हर्जाने से छुटकारा तो मिल गया। लेकिन 1906-7 ईस्वी में तिब्बत पर चीन ने अपना अधिकार जमा लिया और याटुंग, ग्याड्से समेत गरटोक में अपनी चौकियां स्थापित कर लीं। जानकार मानते है कि तिब्बत की अपनी ही गलती उसके गुलामी का कारण बन गया। कहतें हैं कि चीन की सेना ने यहां पर तिब्बती लोगों का शोषण शुरू कर दिया और आखिर में वहां के प्रशासक दलाई लामा को अपनी जान बचाकर तिब्बत से भागना पड़ा। जो, आज भारत में शरण लिए हुएं हैं।
सन 1933 ईस्वी में 13वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद आउटर तिब्बत धीरे-धीरे चीन के घेरे में आने लगा था। इस बीच 14वें दलाई लामा ने 1940 ईस्वी में शासन का भार सम्भाल लिया। वर्ष 1950 ईस्वी में पंछेण लामा के चुनाव को लेकर दोनों देशों में शक्ति प्रदर्शन की नौबत आ गई और चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गया। वर्ष 1951 की संधि के अनुसार साम्यवादी चीन के प्रशासन में इनर तिब्बत को एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया। इसी समय भूमिसुधार कानून एवं दलाई लामा के अधिकारों में कटौती होने के कारण असंतोष की आग सुलगने लगी थीं। यह आग वर्ष 1956 एवं 1959 ईस्वी में भड़क उठी। लेकिन बल प्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। चीन द्वारा चलाए गए दमन चक्र से बचकर किसी प्रकार दलाई लामा नेपाल से होते हुए भारत पहुंच गये और आज भी शरणार्थी बन कर भारत में रह रहे है। मौजूदा समय में सर्वतोभावेन पंछेण लामा तिब्बत में नाममात्र के प्रशासक हैं।
कहतें हैं कि मध्य एशिया की उच्च पर्वत श्रेणियों, कुनलुन एवं हिमालय के मध्य स्थित 16 हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित तिब्बत का ऐतिहासिक वृतांत लगभग 7वीं शताब्दी से मिलता है। 8वीं शताब्दी से ही यहां बौद्ध धर्म का प्रचार प्रांरभ हो गया था। जानकार मानते हैं कि 1013 ई. में नेपाल से धर्मपाल तथा अन्य बौद्ध विद्वान् तिब्बत गए। 1042 ई. में दीपंकर श्रीज्ञान तिब्बत पहुंचे और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। बहरहाल, हालात करबट ले चुका है और यदि किसी दिन तिब्बत हमेशा के लिए चीनियों का क्षेत्र बन गया तो यह केवल तिब्बत का अंत नही, बल्कि भारत के लिए भी एक स्थायी खतरा होगा। पिछले दिनों चीन ने तिब्बत में दुनिया के सबसे उँचे रेलमार्ग का निर्माण करके न केवल तिब्बत पर अपनी पकड मजबूत कर ली है। बल्कि, उसने तिब्बत के खनिज पदार्थो के दोहन का भरपूर अवसर भी अपने पक्ष में कर लिया है। इससे चीन की सामरिक शक्ति में वृद्वि होगी। यह भारत के लिए चिन्ता का कारण बन सकता है।
तिब्बत जैसा शांतिप्रिय देश आज चीन के सैन्यीकरण का मुख्य अडडा बन चुका है। जिस देश को दुनिया की उजली, स्वच्छ और सफेद छत माना जाता था, आज वह आणविक रेडियोधर्मी कचरा फेंकने वाला कूड़ा दान बन कर रह गया है। नतीजा, यहां से निकलने वाली नदियो का जल धीरे- धीरे भयानक रूप से दूषित होता जा रहा है। बतातें चलें कि ये नदियाँ आक्सस, सिन्धु, ब्रहमपुत्र, इरावदी आदि है, जो दक्षिणी एशिया के अनेक देशों में बहती है, जिनमें भारत और बांग्लादेश जैसे घनी आबादी वाले देश शामिल हैं। अगर हम अतीत में लौटते हैं तो कई रोचक जानकारियां सामने आती हैं। आपको शायद यह जानकारी नहीं होगी कि तिब्बत एक विशाल साम्राज्य हुआ करता था, जो सातवीं सदी में विकसित हुआ था। उन दिनों सेन गैम्पों तिब्बत का शासक हुआ करता था। यह साम्राज्य उत्तर में तुर्किस्तान से लेकर पश्चिम में मध्य एशिया तक फैला था। सन 763 ईसवी में तिब्बतियों ने चीन की तत्कालीन राजधानी चांग आन, जिसे आज सियान के नाम से जानतें हैं, इसको अपने अधीन कर लिया था। ढाई सौ वर्षो तक यही स्थिति बनी रही थी।
कहतें हैं कि दसवीं सदी में तिब्बत साम्राज्य का पतन हो गया और चीन ने अपना स्वतंत्र स्तित्व कायम कर ली। चीनियों का यह दावा कि तिब्बत हमेशा चीन का हिस्सा रहा है। दरअसल, यह उन थोड़े से वर्षो से निकाला गया है, जब दोनो देश मंगोल साम्राज्य का हिस्सा हुआ करतें थे। जानकार बतातें हैं कि बारहवीं सदी में मंगोलो ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। 1207 ईसवी में तिब्बत, मंगलो के अधीन हुआ और 1280 ईस्वी के आसपास मंगोलो ने चीन को अपने अधीन कर लिया। सिर्फ यही एक समय था, जब तिब्बत और चीन एक साथ मंगोल साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। अब अगर चीन इस आधार पर तिब्बत पर अपने अधिकार का दावा करता है। तो, क्या भारत को भी इसी नाते म्यंमार, आस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड और हांगकांग पर अपना दावा करना चाहिए? क्योंकि ये सभी कभी ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा हुआ करते थे?
आपके लिए यह जानना जरुरी है कि चीनियों के आने के पहले 1950 ईसवी तक तिब्बत में 6 हजार मठ और मंदिर थे और इसमें करीब 6 लाख भिक्षु निवास करते थे। 1979 ईसवी में हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि उनमें से अधिकाशं भिक्षु और भिक्षुणियां या तो मार दिए गये या वे लापता हो चुकें हैं। अब मात्र 60 मठ बचे है। उनमें से भी अधिकांश नष्ट होने के कगार पर है। चीनियों ने योजनाबद्व तरीके से मठ और मंदिरों को डायनामाइट के विस्फोट से नष्ट कर दिया है। किन्तु इसके पहले चीनियो ने मठों से बेशकीमती धार्मिक महत्व की कलाकृति, प्राचीन दुर्लभ पाण्डुलिपि, प्राचीन मूर्ति एवं अमूल्य प्राचीन थंका चित्रों को वहां से निकालकर अन्तरराष्ट्रीय बाजार में, अरबों डालर में बेच कर मोटी कमाई कर ली है।
चीन ने तिब्बत में पायी जानेवाली खनिज सम्पदा पर भी कब्जा कर लिया है। बतातें चलें कि यहां बोरेक्स, क्रोमियम, कोबाल्ट, कोयला, तांबा, हीरा, सोना, ग्रेफाइट, अयस्क, जेड पत्थर, र्लाड, मैग्नीशियम, पारा, निकल, प्राकृतिक गैस, तेल, आयोडिन, रेडियम, पेट्रोलियम, चाँदी, टगस्टन, टिटानियम, सूरेनियम और जस्ता इत्यादि प्रमुख रूप से पाया जाता है। इसके अतिरिक्त उत्तरी तिब्बत में कास्य प्रचुर मात्रा में है। से सारे खनिज धरोहर पूरी दुनिया के ज्ञात स्त्रोतों से प्राप्त होंने वाले खनिजो पदार्थो का तकरीबन 50 प्रतिशत से भी ज्यादा बताया जा रहा है। इतना ही नही बल्कि, चीन ने तिब्बत के जंगलों की अंधाधुध कटाई करके अरबो डालर की कमाई कर रहा है। एक अनुमान के अनुसार तिब्बत के 70 प्रतिशत जंगल काटे जा चुके है। चीनियो ने तिब्बत के कृषि प्रणाली को घ्वस्त कर दिया है। नतीजा, पिछले दशक में लगभग तीन लाख तिब्बती भूख से मर गये। चीनियों ने तिब्बत के लोपनोर इलाके में बड़े पैमाने पर आणविक परीक्षण किये है। इसके परिणामस्वरुप लोपनोर में रहने वाले अधिकांश लोग घातक रेडियशन की चपेट में आकर तड़प- तड़प कर मौत की आगोश में समा गये। वही अधिकांश लोगों जान बचा कर वहां से विस्थापित करने को विवश हो गयें हैं।
अन्तराष्ट्रीय मामलो के जानकार मानतें हैं कि तिब्बत, चीन का दुखता हुआ नब्ज है और समय आ गया है कि भारत को इस नब्ज पर हाथ डाल देना चाहिए। जिस प्रकार से डोकलाम को लेकर पूर्व में हुए समझौते से चीन मुकर रहा है। ठीक उसी प्रकार भारत सरकार को भी तिब्बत नीति पर पुर्नविचार करने का वक्त आ गया है।
This post was published on जून 9, 2020 17:44
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