जेपी राणा
मुजफ्फरपुर। चंपारण में गांधी के सत्याग्रह को जो जानते हैं, वे राजकुमार शुक्ल का नाम भी जानते होंगे। गांधी के चंपारण सत्याग्रह में दर्जनों नाम ऐसे रहे जिन्होंने दिन-रात एक कर गांधी का साथ दिया। गांधी के आने के पहले चंपारण में कई नायकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। इनमें कौन महत्वपूर्ण नायक था, तय करना मुश्किल है?
सबकी अपनी भूमिका थी, सबका अपना महत्व था। लेकिन 1907-08 के इस आंदोलन के बाद गांधी को चंपारण लाने में और उन्हें सत्याग्रही बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका राजकुमार शुक्ल की मानी जाती है। इनका जन्म चम्पारण ज़िला के सतबरिया ग्राम में हुआ था। इनकी धर्म पत्नी का नाम श्रीमती केबला देवी था जो मुजफ्फरपुर जिला अन्तर्गत मीनापुर थाना के भटौलिया गांव की रहने वाली थी।
कहतें है कि गांधी के चंपारण सत्याग्रह में दर्जनों नाम ऐसे रहे जिन्होंने दिन-रात एक कर गांधी का साथ दिया। अपना सर्वस्व त्याग दिया। उन दर्जनों लोगों के तप, त्याग, संघर्ष, मेहनत का ही असर रहा कि कठियावाड़ी ड्रेस में पहुंचे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण से ‘महात्मा’ बनकर लौटे और भारत की राजनीति में एक नई धारा बनते चले गये। दरअसल, गांधीजी ने 1917 में चंपारण से सत्याग्रह की आगाज किया था।
इतिहास के पन्ने में दर्ज भले न हो ,लेकिन इस सच से इनकार नही किया जा सकता है कि चंपारण में गांधीजी के आने के पहले भी एक बड़ी आबादी निलहों से अपने सामर्थ्य के अनुसार बड़ी लड़ाई लड़ रही थी। उस आबादी का नेतृत्व शेख गुलाब, राजकुमार शुक्ल, हरबंश सहाय, पीर मोहम्मद मुनिश, संत राउत, डोमराज सिंह, राधुमल मारवाड़ी जैसे लोग कर रहे थे।
1907-08 में निलहों से चंपारणवालों की भिड़ंत हुई थी। यह घटना कम ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती। शेख गुलाब जैसे जांबाज ने तो निलहों का हाल बेहाल कर दिया था। चंपारण सत्याग्रह का अध्ययन करने वाले भैरवलाल दास कहते हैं, ‘साठी के इलाके में शेख ने तो अंग्रेज बाबुओं और उनके अर्दलियों को पटक-पटककर मारा था। इस आंदोलन में चंपारणवालों पर 50 से अधिक मुकदमे दर्ज हुए और 250 से अधिक लोग जेल गए। शेख गुलाब सीधे भिड़े तो पीर मोहम्मद मुनिश जैसे कलमकार ‘प्रताप’ जैसे अखबार में इन घटनाओं की रिपोर्टिंग करके तथ्यों को उजागर कर देश-दुनिया को इससे अवगत कराते रहे। राजकुमार शुक्ल जैसे लोग रैयतों को आंदोलित करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह की भाग-दौड़ करते रहे। राजकुमार शुक्ल ही थे जिन्होंने गांधी को चंपारण आने को बाध्य किया और आने के बाद गांधी के बारे में मौखिक प्रचार करके सबको बताया ताकि जनमानस गांधी पर भरोसा कर सके और गांधी के नेतृत्व में आंदोलन कर सके।
सभी ने अपने तरीके से अपनी भूमिका निभाई और इस आंदोलन का असर हुआ। 1909 में गोरले नामक एक अधिकारी को भेजा गया। तब नील की खेती में पंचकठिया प्रथा चल रही थी। यानी एक बीघा जमीन के पांच कट्ठे में नील की खेती अनिवार्य थी। इस आंदोलन का ही असर रहा कि पंचकठिया की प्रथा तीनकठिया में बदलने लगी। यानी रैयतों को पांच की जगह तीन कट्ठे में नील की खेती करने के लिए निलहों ने कहा।
चंपारण के सत्याग्रह के इतिहास पर बात करने वाले सभी राजकुमार शुक्ल की भूमिका को काफी अहम मानते हैं। सब जानते हैं कि ये राजकुमार शुक्ल ही थे जो गांधी को चंपारण लाने की कोशिश करते रहे। गांधी को चंपारण बुलाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह दौड़ लगाते रहे। चिट्ठियां लिखवाते रहे और गांधीजी को भेजते रहे। पैसे न होने पर चंदा करके, उधार लेकर गांधी के पास जाते रहे। कभी अमृत बाजार पत्रिका के दफ्तर में रात गुजारकर कलकत्ता में गांधी का इंतजार करते थे। कई बार अखबार के कागज को जलाकर खाना बनाते और भाड़ा बचाने के लिए शवयात्रा वाली गाड़ी पर सवार होकर यात्रा करते थे। खुद गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ’ में राजकुमार शुक्ल पर एक पूरा अध्याय लिखा है।
राजकुमार शुक्ल से जुड़े हुए ऐसे कई अध्याय हैं कि गांधी के आने के बाद कैसे वे रैयतों को एकजुट करके लाते थे। सबका छोटा-बड़ा केस भी लड़ते थे। लेकिन शुक्ल की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण अध्याय गांधी के चंपारण से चले जाने के बाद का है। जो अंजान है और इस पर ज्यादा चर्चा नहीं होती।
भैरवलाल दास द्वारा संपादित राजकुमार शुक्ल की डायरी में एक बेहद मार्मिक प्रसंग है। गांधी के चंपारण से जाने के बाद भितिहरवा से शुक्ल के संगठन का काम जारी रहा है। रोलेट एक्ट के विरुद्ध वे ग्रामीणों व रैयतों में जन जागरण फैलाते रहते हैं। ग्रामीणों के बीच उनकी सक्रियता 1920 में हुए असहयोग आंदोलन में भी रही। वे चंपारण में किसान सभा का काम करते रहे। 1919 में लहेरियासराय में बिहार प्रोविंशियल एसोसिएशन का 11वां सत्र आयोजित हुआ जिसमें वे भाग लिए। वहां जासूसी करने गया एक अंग्रेज अधिकारी लिखता है कि राजकुमार शुक्ल इन सभी के नेता हैं।
This post was published on अप्रैल 9, 2017 23:51
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