गुवाहाटी हाई कोर्ट ने असम सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। अदालत ने राज्य सरकार से पूछा कि आखिर एक सीमेंट कंपनी को आदिवासी जिले की 3000 बीघा जमीन कैसे आवंटित कर दी गई। कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसा लगता है मानो आधा जिला ही कंपनी को सौंप दिया गया हो। अदालत ने इस फैसले को “हैरान करने वाला और अप्रत्याशित” बताया।
मामला महाबल सीमेंट्स कंपनी से जुड़ा हुआ है। कोर्ट ने साफ कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि कंपनी इतनी प्रभावशाली है कि उसके दबाव में ही यह जमीन आवंटन हुआ। अदालत ने सवाल किया कि आखिर यह फैसला कैसे लिया गया और क्या सरकार समझती है कि 3000 बीघा जमीन का मतलब कितना बड़ा क्षेत्र होता है।
हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि जिस जिले में यह जमीन दी गई है, वह संविधान की छठी अनुसूची के दायरे में आता है। यह व्यवस्था खासतौर पर स्थानीय आदिवासी समुदायों के हितों की रक्षा के लिए बनाई गई है। अदालत ने टिप्पणी की कि ऐसे में इतनी बड़ी जमीन किसी कंपनी को देना सीधे-सीधे इस संवैधानिक सुरक्षा का उल्लंघन है।
बेंच ने बताया कि आवंटित जमीन में डिमा हसाओ जिले का उमरांगसो इलाका भी शामिल है। यह इलाका पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील माना जाता है। यहां बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी आते हैं और यह क्षेत्र वाइल्डलाइफ के लिए भी मशहूर है। कोर्ट ने कहा कि इस इलाके को औद्योगिक इस्तेमाल के लिए देना गंभीर पर्यावरणीय संकट पैदा कर सकता है।
हाई कोर्ट ने नॉर्थ कछर हिल्स ऑटोनोमस काउंसिल से इस संबंध में सभी दस्तावेज सौंपने को कहा है। अदालत ने यह भी पूछा कि किस पॉलिसी के तहत महाबल सीमेंट्स को इतनी बड़ी जमीन आवंटित की गई। कोर्ट ने साफ कहा कि इस प्रक्रिया में पारदर्शिता होनी चाहिए। अब इस मामले की अगली सुनवाई 1 सितंबर को होगी।
यह मामला ग्रामीणों की याचिका पर सुनवाई के दौरान सामने आया। ग्रामीणों का आरोप है कि उन्हें उनकी पुश्तैनी जमीन से हटाया जा रहा है। उनका कहना है कि यह जमीन उनकी आजीविका और पहचान का हिस्सा है।
वहीं महाबल सीमेंट्स ने अपनी तरफ से दलील दी कि जमीन उन्हें टेंडर प्रक्रिया के जरिए 30 साल की लीज पर मिली है। कंपनी ने कहा कि वह किसी की व्यक्तिगत जमीन लेने में दिलचस्पी नहीं रखती बल्कि सिर्फ माइनिंग और प्रोडक्शन के लिए आवंटित जमीन का उपयोग कर रही है। कंपनी का दावा है कि कुछ लोग जानबूझकर उनके कामकाज में बाधा डाल रहे हैं।
ग्रामीणों की ओर से पेश वकीलों ने कहा कि आदिवासी लोगों को उनकी जमीन से हटाना पूरी तरह गलत है। उन्होंने दलील दी कि संविधान ने आदिवासी समुदायों को विशेष सुरक्षा दी है और इस मामले में इन अधिकारों का हनन हुआ है।
हाई कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि महाबल सीमेंट्स कंपनी का असाधारण प्रभाव इस पूरे मामले में साफ झलकता है। अदालत ने कहा कि यह बेहद गंभीर मसला है क्योंकि एक निजी कंपनी के लिए आदिवासी और पर्यावरणीय हितों को ताक पर नहीं रखा जा सकता।
अब पूरे मामले की अगली सुनवाई 1 सितंबर को होगी। अदालत ने राज्य सरकार और नॉर्थ कछर हिल्स ऑटोनोमस काउंसिल को जमीन आवंटन से जुड़े सभी दस्तावेज पेश करने का आदेश दिया है।
यह मामला न सिर्फ असम बल्कि देशभर में आदिवासी अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े बड़े सवाल खड़े करता है। अदालत का अंतिम फैसला यह तय करेगा कि विकास की आड़ में आदिवासी समुदाय और संवेदनशील इलाकों की बलि चढ़ाई जा सकती है या नहीं।
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