भारत में 17वीं लोकसभा का चुनाव अब अपने अंजाम की आखरी पड़ाव पर है। मुद्दो की बिछात पर बदजुबानी की भरमार है। सेक्यूलरवाद बनाम राष्ट्रवाद की इस जंग में जीत और हार के मायने बदल गए है। बनते बिगड़ते समीकरण के बीच जन भावनाएं जमींदोज हो रही और आंकड़ो के साथ झूठ पड़ोसने वाले धुरंधरो ने अपनी बाजीगरी की बिसात पर नफरत और घृणा के बीज बो दिए। इतिहास के हवाले से खुलेआम झूठ पड़ोसे जा रहें हैं। कुतर्को को ज्ञान का आधार बना दिया गया है। जाहिर है, ऐसे में रोजगार, सुरक्षा, शिक्षा और चिकित्सा का मुद्दा घोषणापत्र के पन्नो में सिसकियां भरती रह जाये, तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। दौर, ऐसा चला कि आधारभूत संरचनाओं की बातें बेमानी हो गई। किसी को अपना परिवार खतरे में दिखा, तो किसी को देश की सुरक्षा खतरे में दिखा। बात यहां तक पहुंच गई, कि हमारे रहनुमाओं ने अपने चुनावी सभाओं में संविधान और प्रजातंत्र तक को खतरे में बताना शुरू कर दिया। चिल्ल-पो ऐसी मची कि 21वीं सदी के इस चुनाव में, चुनावी हिंसा पर किसी का ध्यान ही नहीं गया? यह एक बड़ा सवाल है और आज इसी सवाल की हम पड़ताल करेंगे। देखिए, यह रिपोर्ट…
This post was published on मई 17, 2019 17:00
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