सहदेव झा
KKN ब्यूरो। बिहार में मुजफ्फरपुर जिला का एक कस्वा है-मीनापुर…। मीनापुर चौक से महज तीन किलोमीटर और बेलसंड पथ से मात्र एक किलोमीटर दूर हरका मानशाही गांव में एसवेस्टस से बना एक बहुत ही साधारण झोपड़ीनुमा घर है। इंदिरा आवास की राशि से घर के सटे ईट का बना एक अर्धनिर्मित दलान भी है। इसी छोटे से घर में अभाव और मुफ्लिसी में एक साथ दो परिवार गुजर करने को विवश है। दरअसल, यह कोई मामूली परिवार नहीं है। बल्कि, मीनापुर के गांधी कहलाने वाले स्व. पंडित सहदेव झा के वंशज है। 40 के दशक तक इलाके का बेहद संपन्न परिवार, आज आर्थिक तंगी की इस अवस्था तक कैसे पहुंच गया? यह बड़ा सवाल है। इससे भी बड़ा सवाल ये कि देश की खातिर सर्वश्व कुर्बान करने वालों से शासन की उदासिनता कब दूर होगी ? पक्की सड़क और सरपट दौड़ती जिन्दगी…। बिजली के डेढ़े खड़े खम्भा और लटकी हुई तार से रौशन होता गांव… भले विकास की नई इवादत गढ़ रहा हो। पर, इसी गांव में सड़क किनारे कोने पर बना एक छोटी से झोपड़ी की खामोशी… चीख-चीख कर शासन से सवाल पूछ रहा है। यह महज एक झोपड़ी नहीं… बल्कि, समाज के बेपरवाही का जिवंत आईना है।
सहदेव झा की तीसरी पीढ़ी के 63 वर्षिय परमानन्द झा ग्रामीण क्षेत्र में क्वेक का काम करके अपनी पत्नी मीरा देवी के साथ तीन पुत्री एवं एक पुत्र का भरण- पोषण करते है। ताज्जुब की बात ये हैं कि इनको आज तक स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र भी नसीब नहीं हुआ। कहतें हैं कि कार्यालय का दौर तो बहुत लगाया। पर, बाबुओं के कान पर जूं नहीं रेंगा। मुफ्लिसी का आलम ये है कि खेती की जमीन बिक गई और दूसरा कोई रोजगार मिला नहीं। परमानन्द झा बतातें हैं कि दादाजी 60 एकड़ जमीन के स्वामी हुआ करते थे। आज महज 3 एकड़ से भी कम जमीन बच गया। छोटा भाई 50 वर्षीय देवानन्द झा अपनी पत्नी रीना देवी और एक लड़की के साथ इसी संयुक्त घर का हिस्सा है। बिहार से बाहर रह कर कपड़ा बनाने का काम करने वाले देवानन्द झा कोरोना महामारी के दौरान बेरोजगार होकर फिलहाल घर पर बैठे है। बतातें हैं कि आजादी की लड़ाई में परिवार का सब कुछ बिखरता चला गया। आर्थिक तंगी के बीच चार साल पहले पिता सच्चिदानन्द झा का साया भी सिर से उठ गया। पर, सरकारी मदद के नाम पर महज एक अदद इंदिरा आवास के अतिरिक्त और कुछ नसीब नहीं हुआ। सबसे बड़ा भाई आनंद बिहारी झा की वर्ष 1992 के मार्च महीने में अकाल मृत्यु से यह परिवार पूरी तरीके से टूट चुका है। आनन्द बिहारी झा की विधवा अंजनी देवी अपने पुत्र धर्मेन्द्र झा के साथ शहर के सहबाजपुर में किराया के एक मकान में रहती है और किराना दुकान चला कर अपने परिवार का पोषण कर रही है। इनका छोटा पुत्र अमरेन्द्र कुमार झा बिहार से बाहर मजदूरी करने को विवश है।
बात वर्ष 1942 की है। देश में भारत छोड़ो आंदोलन पूरे सबाव पर था। बिहार के मुफ्फरपुर जिला अन्तर्गत मीनापुर थाना में भारत छोड़ो आंदोलन का नेत्रित्व करते हुए सहदेव झा की अगुवाई में आंदोलनकारियों ने 16 अगस्त 1942 को मीनापुर थाना पर तिरंगा लहरा दिया था। इस दौरान अंग्रेजो की गोली से बांगूर सहनी शहीद हो गए और एक दर्जन से अधिक लोगों को गोली लगी थी। स्वयं सहदेव झा भी जख्मी हो गए थे। इस झड़प के दौरान ही आंदोलनकारियों ने अंग्रेज थानेदार लुइस वालर को थाना में जिन्दा जला दिया था। इसकी गूंज लंदन के पार्लियामेंट तक सुनाई पड़ी थी। इसी आरोप में अंग्रेज जुड़ी ने 11 मार्च 1944 को जुब्बा सहनी को फांसी दे दिया। इस आरोप में सहदेव झा सहित पांच दर्जन से अधिक लोगों को जेल की कटोर यातनाएं झेलनी पड़ी थी।
15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को देश आजाद हो गया। अगले रोज यानी 16 अगस्त से राजनीतिक कैदियों की रिहाई होने लगी। बड़ी संख्या में लोगो को जेल से बाहर निकाला गया। संपूर्ण राष्ट्र आजादी का जश्न मना रहा था। दूसरी ओर देश के कई हिस्सो में दंगा शुरू हो चुका था। नव गठित पाकिस्तान से आने वाली ट्रेन में भर- भर कर लाशे आ रही थी। पंजाब और बंगाल का बड़ा इलाका दंगे की चपेट में था। अब बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात और सिंध के बड़े इलाको से दंगा की खबरें आने लगी थी। भूख, प्यास और हवस की शिकार बन चुकी विलखती महिलाओं की दर्द भरी दास्तान, अखबार की सुर्खियां बनने लगी थी। इधर, जेल से रिहा होते ही सहदेव झा ने एक बार फिर से मोर्चा सम्भाला और मंगल सिंह, जगन्नाथ सिंह, जंगवहादुर सिंह, जनक सिंह, सरयुग भगत, चतर्भुज झा, दहाउर ठाकुर, रुदल शाही, रीझन सिंह, बहादुर सहनी, सरयुग साह, अयोध्या सिंह, महावीर सिंह, रामकिशोर दास, आदि सैकड़ो लोगो की अलग- अलग टुकड़ी बना कर गांव में पहड़ा (चौकीदारी) करने लगे। लोगों को शांति का पाठ- पढ़ाया। ताकि, मीनापुर में दंगा नही भड़के और लोग शांति से रह सके। इसका नतीजा ये हुआ कि मीनापुर ने एक बार फिर कौमी एकता और सदभावना की मिशाल कायम करके देश को शांति की मजबूत राह दिखाई।
बात तक की है जब गांधीजी के कहने पर सहदेव झा को रॉलेट एक्ट आंदोलन का मुजफ़्फरपुर जिला संयोजक नियुक्त कर दिया गया था। संयोजक बनते ही उन्होंने गांव- गांव घूम कर रॉलेट एक्ट के बारे में लोगो को जागरुक करना शुरू कर दिया। इस दौरान वो पहली बार गिरफ्तार हुए। हालांकि, एक सप्ताह बाद रिहा हो गए और रिहा होते ही फिर से संगठन के कार्य में लग गए। सहदेव झा ने उनदिनों समाजिक कुप्रथा और छूआछूत का पुरजोर विरोध किया था। गरीब छात्रो को मुफ्त में शिक्षा देने और राष्ट्रभाषा का प्रचार करने के लिए कई अभियान की अगुवाई की। सिवाईपट्टी में खादी भंडार की स्थापना करके लोगो को रोजगार से जोड़ने का काम किया। बिनोवाजी के भूदान आंदोलन में हिस्सा लिया और खुद से भूदान करके इस अभियान को आगे बढ़ाया। सहदेव झा के कहने पर परसौनी राजा और काशी नरेश, शिवहर के आनंद बाबू, बेतिया के राजा और जैतपुर स्टेट ने भूमि का बड़ा टुकड़ा बिनोबाजी को दान कर दिया था।
गांधीजी के कहने पर वर्ष 1930 में उन्होंने मुजफ्फरपुर में शराब पर प्रतिबंध लगाने की मांग के साथ आंदोलन शुरू कर दिया। अपने सैकड़ो समर्थकों के साथ शराब दुकान के समीप धरना पर बैठ गए। इस दौरान हुई पुलिस की लाठी से जख्मी हुए। वर्ष 1930 में ही जब सहदेव झा जेल में बंद थे, वही पर उन्हें पुत्र होने की सूचना दी गई। एक महीना 7 रोज बाद जेल से रिहा हो कर फिर से कॉग्रेस के काम में लग गये। अंग्रेजो ने 21 अप्रैल 1933 को उन्हें राष्ट्रद्रोह के आरोप में फिर से गिरफ्तार कर लिया। छह महीने की कठोर यातना झेलने के बाद 27 अक्तूबर 1933 को जमानत पर रिहा हुए। अंतिम बार वालर हत्याकांड के आरोप में गिरफ्तार हुए लम्बे समय तक जेल की सजा काटी। हालांकि, आजादी मिलने के बाद राजनीतिक कैदियों की रिहाई का उन्हें भी लाभ मिला और जेल से छोड़ दिये गये।
1936 में पं. जवाहर लाल नेहरू ने बाबा रामचंद्र, विजय सिंह ‘पथिक’, सहजानंद सरस्वती और एन.जी. रंगा को भारतीय किसानों को संगठित करने का भार सौपा था। इसी सिलसिले में सहजानंद सरस्वती और एन.जी. रंगा पटना आए हुए थे। अपने नेता के बुलाबे पर सहदेव झा भी पटना गए। मुजफ्फरपुर में किसान आंदोलन को धारदार करने का निर्णय हुआ। अगस्त का महीना था और बाढ़ आई हुई थी। सहदेव झा आजादी के लिए गांव- गांव का भ्रमण कर रहे थे। उधर, उनकी पत्नी महासुंदरी देवी टेटनस की चपेट में आ गई। उनदिनो टेटनस लाइलाज बीमारी था। लिहाजा, उनकी मौत हो गई। अपने पुत्र सच्चिदानन्द झा को भाइयों के हवाले करके सहदेव झा देश सेवा से एक पल के लिए भी बिमुख नही हुए। वो देश के आजाद होने के बाद भी समाज की सेवा करते रहे। आखिरकार 20 दिसम्बर 1982 को उन्होंने इस धरा पर आखरी सांस ली और इस दुनिया से चले गये। आज उनके वंशज कतिपय कारणो से हासिए पर खड़े हैं और समाजिक उपेक्षाओं का दंश झेल रहे हैं।
आजादी के बाद पहली बार प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मुजफ्फरपुर में सभा हुई थी। सहदेव झा ने इसकी अध्यक्षता की थी। उनदिनो सभा की अध्यक्षता करना बड़ी बात मानी जाती थी। इसके बाद 18 अक्टूबर 1954 को देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एक समारोह में भाषण देने के लिए सीतामढ़ी जा रहे थे। उनदिनो यह मुजफ्फरपुर जिला का ही हिस्सा हुआ करता था। बाद में 11 दिसंबर 1972 को मुजफ्फरपुर से अलग करके सीतामढ़ी को जिला का दर्जा मिला। इधर, बस छूट जाने की वजह से सहदेव झा सीतामढ़ी की ओर जाने वाली सड़क किनारे खड़े थे। सड़क मार्ग से जा रहें राष्ट्रपति की उन पर नजर पड़ गई। कहतें है कि राजेन्द्र बाबू ने गाड़ी रोक दी। पूरा कॉर्केट रूक गया और राजेन्द्र बाबू सहदेव झा को अपने साथ लेकर गये थे। यह तब की बात है, जब राजनेताओं के सिर पर सत्ता का अहंकार नहीं हुआ करता था। सादगी उनके मूलता की अनुकृति मानी जाती थी। आज हम अपने उसी महान विभूति को कतिपय कारणो से हासिए पर धकेल कर गर्व की अनुभूति करते हैं।
बात उन दिनो की है जब 10 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी चंपारण आए थे। अपने कई समर्थको के साथ पं. सहदेव झा गांधीजी से मिलने चंपारण पहुंच गये। वहीं, उनकी मुलाकात राजकुमार शुक्ल से हो गई। सहदेव झा कॉग्रेस के सदस्य पहले ही बन चुके थे। चंपारण प्रवास के दौरान ही सहदेव झा का गांधीजी से गहरा रिश्ता बन गया। राजकुमार शुक्ल, श्रीकृष्ण सिंह, मज्जहरूल हक, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह एवं ब्रजकिशोर सिंह से उनकी नजदिकियां बढने लगी थी। इस बीच वर्ष 1919 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में ‘रॉलेट एक्ट’ को लागू कर दिया। इस कानून के तहत किसी भी भारतीय को गिरफ्तार किया जा सकता था। देश में इस कानून का विरोध शुरू हो गया। महात्मा गांधी ने सत्याग्रह सभा की स्थापना कर दी और 17 अप्रैल 1919 को इसके विरोध में देश व्यापी हड़ताल का आह्वान कर दिया गया। इसी दौरान सत्याग्रह सभा की बैठक में सहदेव झा को पहली बार महात्मा गांधी के साथ मंच साझा करने का अवसर मिला था।
छह फुट का लम्बा शरीर… और शरीर पर राजशी ठाट वाला लिवास। कुर्ता, बंडी और हाथ में बेंत लिए जब सहदेव झा मंच पर चढ़ते थे, तो वहां बैठे सभी सत्याग्रहियों की बरबस ही उन पर नजर चली जाती थी। साथियों की घूरती निगाहों से अक्सर सहदेव झा झेप जाते थे। हालांकि, इसी दौरान एक सभा में गांधीजी की मौजूदगी में सहदेव झा ने मंच से अपने वस्त्र त्यागने की सार्वजनिक घोषणा कर दी। उनके वस्त्रो की निलामी हुई और महात्मा गांधी ने यही पर कस्तुरबा ट्रस्ट की स्थापना करके इस राशि को ट्रस्ट में जमा करा दिया। इसके बाद जीवन प्रयंत सहदेव झा एक धोती के अतिरिक्त और कोई भी दूसरा वस्त्र धारण नहीं किये।
स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी सपूत सहदेव झा का 20 अक्टूबर 1874 को मीनापुर के हरका मानशाही गांव में जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम पं. चेतनारायण झा और माता का नाम जानकी देवी था। पं. चेतनारायण झा बड़े किसान थे और भगवान शिव के अनन्य भक्त भी थे। सहदेव झा का बचपन बड़ा ही लार- प्यार में बीता था। बालक सहदेव बचपन से समाजिक कार्यो में रूची लेने लगे थे। अपने पांच भाइयो में सहदेव झा सबसे बड़े थे। उनके छोटे भाई का नाम क्रमश: त्रिलोकीनाथ झा, चतर्भुज झा, हरिवंश झा और ब्रजनंदन झा था। त्रिलोकीनाथ झा कर्मठ किसान थे। लिहाजा कालांतर में परिवार के भरण- पोषण का भार उन्हीं को सौपा गया। हरिवंश झा और चतुर्भुज झा शिक्षक बन कर समाज की सेवा में लग गए। सबसे छोटे ब्रजनंदन झा अपने बड़े भाई सहदेव झा की सेवा में लगे रहते थे। आगे चल कर पांचो भाई आजादी की लड़ाई में कूद गए, जेल गए और सरकारी नौकरी भी गई।
सहदेव झा की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता पंडित चेतनारायण झा की देख- रेख में हुआ था। बड़े होने पर संस्कृत शिक्षा के लिए शिवहर जिला के डुमरी- कटसरी चले गये। वहां उन्होने प्रथम श्रेणी से ‘शास्त्री’ की परीक्षा उतीर्ण की। घर लौटने पर पिता ने उच्च शिक्षा के लिए कोलकता भेज दिया। अपने कोलकता प्रवास के दौरान ही सहदेव झा ने तीन विषयों में आचार्य की डिग्री हासिल की। इसके बाद कर्मकांड की शिक्षा हेतु काशी चले गए। उन दिनो काशी कर्मकांड सहित संस्कृत शिक्षा का प्रख्यात केन्द्र हुआ करता था। काशी प्रवास के दौरान ही पंडित मदन मोहन मालवीय जी से सहदेव झा की मुलाकात हो गई। उन्हीं दिनों मालवीयजी के नेतृत्व में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ छात्र गोलबंद होने लगे थे। कर्मकांड की पढाई के साथ- साथ सहदेव झा अब क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे। पिताजी को जब इस बात की भनक मिली तो उन्होंने सहदेव झा को काशी से बुला लिया और शिवहर जिला अन्तर्गत श्यामपुर भटहां गांव के महासुंदरी देवी के साथ उनका विवाह करा दिया। पिता चाहते थे कि विवाह के बाद सहदेव झा अपने गृहस्थी में लग जायें और परिवार की परंपरा के मुताबिक पूजा- पाठ और कृषि कार्यो से जुड़ कर आजादी की लड़ाई से दूर रहें। पर, नीयति को कुछ और ही मंजूर था।
जब भी हम स्वतंत्रता संग्राम की बात करते हैं, तो दिल्ली, बंगाल और पंजाब की… Read More
आजकल हमारी आंखों पर दबाव इतना बढ़ चुका है कि इन्हें स्वस्थ रखना और उनकी… Read More
आईबीपीएस (इंस्टीट्यूट ऑफ बैंकिंग पर्सनल सेलेक्शन) ने अपनी आईबीपीएस क्लर्क भर्ती 2025 के लिए कई… Read More
मारुति सुजुकी इंडिया ने अगस्त 2025 में अपनी सबसे लोकप्रिय और स्टाइलिश हैचबैक स्विफ्ट पर… Read More
अगर आप Samsung का फ्लिप फोन खरीदने का प्लान कर रहे हैं, तो आपके लिए… Read More
15 अगस्त भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन है, जो हमें हमारे स्वतंत्रता संग्राम… Read More