मुखौटा भले गरीब का हो, चेहरा तो पूंजीवाद का ही होगा

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बिहार विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। चुनाव अपने निर्धारित समय पर होगा। कोरोनाकाल का यह पहला आम चुनाव होगा। राजनीति में गुणा गणित का खेल शुरू हो चुका है। सम्भावनाएं तलाशी जा रही है। कहतें है कि राजनीति वह विधा है, जहां मौका मिला तो ठीक। वर्ना मौका परस्ती से भी गुरेज नहीं होता है। जाहिर है, दरबारें सजेंगी। पटना ही नहीं, रांची में भी सजेंगी। जोगाड़ टेक्नॉलजी, एक्टिव होगा। वायोडेटा का खेल चलेगा। राजनीति के गलियारे में चंदा- चुटकी की बातें छन-छन कर बाहर आयेंगी। कुछ आरोप के शक्ल में और कुछ खंडन के शक्ल में। रहनुमाओं के बगावत के चर्चे सुर्खियां बटोरेगी। आरोप प्रत्यारोप का शोर ऐसा मचेगा कि हमारा और आपका मुद्दा एक बार फिर से गुम हो जाये, तो आश्चर्य नहीं होगा। यह कोई नई परंपरा नहीं है। बल्कि, ऐसा पहले भी हो चुका है। विकास की बात से शुरू होने वाला राजनीति, आखिरकार भावनाओं की भंवर में गुम होता ही रहा है। सवाल उठता है कि क्या यहीं राजनीति है? देखिए, इस रिपोर्ट में…

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