अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में एक दमदार हस्ती रहे तात्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस आज बेवस व लाचार जीवन जीने को विवश है। गनीमत ये कि आज वह सख्सियत किसी को याद भी नही आता। कहतें हैं राजनीति की दुनिया में सदैव उगते सूरज की पूजा होती है। जानकार बतातें हैं कि आपातकाल के दौरान फायरब्रांड नेता के तौर पर उभरे जॉर्ज फर्नांडिस आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं।
बात जून 2010 की है। मानसून दस्तक दे चुका था। जॉर्ज के घर का दरवाजा बंद था और दरवाजे के बाहर जया जेटली, माइकल और रिचर्ड फर्नांडिस खड़े थे। जॉर्ज के केयर टेकर केडी सिंह ने उन्हें घर में घुसने से मना कर दिया। जया का कहना था कि वह अपनी कुछ किताबें और पेंटिंग्स लेने आई हैं। बावजूद इसके जया को पहली बार जॉर्ज के घर में प्रवेस करने की इजाजत नही मिली।
जानकार बतातें है कि वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद जॉर्ज की आर्थिक स्थिति ठीक नही था। उनके पास दिल्ली में रहने का ठिकाना भी नहीं था। यही वह समय था, जब जॉर्ज अल्जाइमर की चपेट में आ गये थे। इस बीच उनके दोस्तों ने उनके लिए किराए का मकान खोजना शुरू कर दिया था। हालांकि, तीन महीने बाद ही वह बिहार से राज्यसभा में पहुंच गए और इस संकट से मुक्ती मिल गई।
कहतें हैं कि 4 अगस्त 2009 को अल्जाइमर से पीड़ित जॉर्ज जब राज्यसभा सदस्य के रूप में शपथ ले रहे थे, उस वक्त उनके बगल में एक महिला खड़ी थीं। दरअसल, वह लैला कबीर थी। जॉर्ज के करीबी सूत्रो की माने तो 25 साल बाद लैला की जॉर्ज के जीवन में वापसी हो रही थी। यह वही लैला थी, जिनसे जॉर्ज ने कभी पागलों की तरह प्यार किया था।
वर्ष 1971 में दिल्ली से कोलकाता की उड़ान के दौरान हवाई जहाज में लैला से जॉर्ज की पहली मुलाकात हुई थी। इसे एक इत्तेफाक कह लें कि दोनो बंगलादेश में चल रही युद्ध के मोर्चा से लौट रहे थे। लैला वहां रेडक्रॉस के अपने मिशन से लौट रही थीं और जॉर्ज अपनी राजनीतिक यात्रा पूरी करके दिल्ली आ रहे थे। दिल्ली पहुंच कर जॉर्ज ने लैला को उनके घर छोड़ने की पेशकश की। किंतु, लैला इसे बड़ी ही विनम्रता से ठुकरा दिया।
किंतु, छोटी सी मुलाकात के दोनो पर गहरे असर पड़े और दिल्ली में दोनों बार-बार एक दूसरे से मिलने लगे। एक महीने के भीतर ही जॉर्ज ने लैला के समक्ष शादी की पेशकश कर दी और इस बार लैला इनकार नहीं कर पाईं। 22 जुलाई, 1971 को दोनो का विवाह हुआ। लैला ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम शॉन फर्नांडिस है।
25 जून 1975 को जब आपातकाल लगा, जॉर्ज और लैला उड़ीसा के गोपालपुर में छुट्टियां मना रहे थे। जॉर्ज यहां से अंडरग्राउंड हो गए और अगले 22 महीने तक उनकी लैला से कोई बात नहीं हुई। इस बीच लैला अपने बेटे के साथ अमेरिका चली गईं। आपातकाल खत्म होने पर जॉर्ज ने उन्हें बुलावा भेजा। पर, किसी कारण से वह लौट नही सकी।
वक्त के साथ जॉर्ज और जया जेटली का रिश्ता राजनीति के गलियारे में सुर्खिया बटोरने लगा था। कहतें है कि दोनो के बीच जो रिश्ता बन गया था, वो साथी राजनीतिक कार्यकर्ता से काफी आगे का माना जाने लगा था। दूसरी ओर लैला ने इस रिश्ते से छुटकारा पाने के लिए जॉर्ज को तलाकनामा भेज दिया और जॉर्ज ने इसके जवाब में सोने के दो कंगन भेज दिये।
लैला की जॉर्ज के जीवन में वापसी भी कम नाटकीय नहीं है। बात 2007 की है। लंबे अंतराल के बाद अचानक जॉर्ज की मुलाकात अपने बेटे शॉन से हो गई। एक प्रत्यक्षदर्शी की माने तो यह मुलाकात काफी भावुक हो गई और इसका असर ये हुआ कि 23 साल बाद जॉर्ज ने पहली बार लैला से फोन पर बात की। शॉन को यहां अपने पिता की बीमारी के बारे पता लगा। लैला का कहना है कि उन्हें महसूस हुआ कि जॉर्ज को अब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है। इसलिए वो जॉर्ज की जिंदगी में दूबारा वापस लौट आईं।
2 जनवरी 2010 को दोपहर 2 बजे लैला जॉर्ज के घर पहुंचती हैं। उनके साथ उनके बेटे शॉन और बहू भी होती हैं। लैला घर के एक कमरे में खुद को जॉर्ज के साथ बंद कर लेती है और जब वह वहां से निकलती हैं, तो जॉर्ज के अंगूठे पर स्याही का निशान देख कर सभी सकते में पड़ जातें हैं। इस तरह जॉर्ज की पावर ऑफ़ अटर्नी, जो कि नवंबर 2009 में जया के नाम पर लिखी गई थी, वह अब लैला के नाम हो जाता है। बात जॉर्ज के 13 करोड़ के संपत्ति से जुड़ा था।
इधर, जया भी चुप बैठने को तैयार नही थी और 2010 में जया ने अदालत में लैला के खिलाफ मामला दायर करते हुए कहा कि उन्हें जॉर्ज से मिलने नहीं दिया जा रहा हैं। उस जॉर्ज से, जिनके साथ वो पिछले 30 साल से थीं। अप्रैल 2012 में इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आया जो कि जया के खिलाफ था। जया मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं। जस्टिस पी सदाशिव की बेंच ने हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया। जॉर्ज के 80वें जन्मदिन पर एक तस्वीर जारी की गई, जिसमें जया और लैला मुरझाए हुए से जॉर्ज के बगल में खड़ी है। इसके बाद जॉर्ज फर्नांडिस एक बार फिर से गुमनामी की चादर ओढ़े पता नही किस हाल में होंगे? शायद इसे ही राजनीति कहतें हैं।
राजनीति में एक आम जुमला है कि यहां कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नही होता है। जॉर्ज पर यह जुमला फिट बैठता है। जिस नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने के लिए जॉर्ज ने अपना आखरी दाव लगाया। उसी नीतीश ने मुख्यमंत्री बनते ही जॉर्ज को राजनीति का आखरी दिन गिना दिया। कहतें है कि बिहार से शुरू हुई जॉर्ज की राजनीतिक सफर का बिहार में ही अवसान भी हो गया। बावजूद इसके मुजफ्फरपुर के लोग जॉर्ज को शायद ही भूल पायें?
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